गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

‎स्वामी स्वरूपानन्द भ्रान्ति उच्छेद‬

‪#‎स्वामी_स्वरूपानन्द_भ्रान्ति_उच्छेद‬ -
इतने चेले भरे हो , इतने समर्थक भरे हो ! सारे प्रवक्ता यही फेसबुक पर आये दिन अपना प्रचार पृष्ठ अपडेट करते हैं ! ‪#‎जय_गुरुदेव‬ लिखने वालों की कमी नहीं !
पर देखो तो आश्चर्य ! आज तक मेरे प्रश्नों का उत्तर किसी तथाकथित अंध और स्वार्थी भक्तों से दिया न गया ! यदि एक तरह से देखा जाए तो इसे ही कहते हैं मीडिया के पाखण्ड की धज्जियां
ये चालाक इतने हैं कि सामने आना तो दूर स्वयं अपने पृष्ठों पर हमारा प्रश्नप्रधान लेख प्रकाशित ही नहीं होने देते , पहले ही ब्लॉक , जबकि सत्यवादी होते तो ऐसा खंडन लिखते कि दूध अलग और पानी अलग हो जाता !
चलो मुझसे दूर ही रहो कोई बात नहीं पर प्रश्नों पर शास्त्रीय विचार तो करो मूर्खों ! पीठ पीछे ही दे दो उत्तर ! ‪#‎द्विपीठाधिपतित्व‬ पर तुम्हारा शास्त्रीय उत्तर सब देखना चाहते हैं !
यदि विश्वस्त सूत्रों की मानें तो ये बेचारे स्वामी स्वरूपानन्द महाशय के आगे भी अपना रोना रो चुके कि फेसबुक पर ऐसा लिखा जा रहा है ! ................पर बेचारे देंगे कहाँ से ? .....जब कोयला हाथ में होगा तो हाथ खोलने पर काला तो दिखेगा ही !
जिसे भी अवसर मिले , हमारे ये सारे वक्तव्य इन ढपोर शंखों के जय गुरुदेव वाले पृष्ठों पर जरूर यहाँ से उठाकर डालियेगा
साथ में ये लिंक भी , ताकि इनकी निद्रा टूट सके ( ध्यातव्य है कि इस लिंक में वही श्लोक प्रकाशित किया गया है जिससे ये सारा पाखण्ड साम्राज्य खडा किया गया है ) -
|| जयश्रीराम ||
उक्त विचार पर ‪#‎सहमत‬ हैं |
विचार प्रेषक: 100010222844871@facebook.com
“द्विपीठाभिषेकवादियों  का भ्रम – भञ्जन “
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परिव्राजकत्व को प्राप्त  एक संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् और यथाविधिपूर्वक प्रकृष्ट संयोजन करे |
परिव्राड् चार्यमर्यादां मामकीनां यथाविधिः |
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक् ||
परिव्राड् मामकीनां चतुष्पीठाधिगां सत्ताम् आर्यमर्यादां  च यथाविधिः पृथक् -पृथक् च प्रयुञ्ज्यात् |
शिवप्रिया व्याख्या : –
वेदान्त की परम्परा मे परिव्राजक- स्तर के संन्यासी का विशेष महत्त्व है |  ज्ञानवृद्ध का आचरण समस्त लोक के लिये आदर्श होता है , वह जैसा आचरण करता है , लोक उसी के अनुरूप अपने- अपने लक्ष्य हेतु गति करता है |  अतः इस स्तर के संन्यासी के लिये श्री आद्य शङ्कराचार्य ने विशेष रूप से महानुशासन को स्पष्ट किया है | किसी भी उच्च स्तरीय (ज्ञानवृद्ध) संन्यस्त को ये कदापि अधिकार नहीं है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चारों पीठों   को मनमर्जी से धारण करे (यथा –  दो पीठ  पर  एक , तीन पीठ पर एक अथवा   चार पीठ पर एक )  ना ही ये अधिकार है कि उस पीठ पर स्वेच्छाचारितापूर्वक  जो चाहे  वो  नियम  प्रारम्भ   कर दे  अपितु उच्च स्तर का संन्यासी उन पीठों को शास्त्रीय विधि से ही धारण करे (अर्थात्  एक  पीठ  पर  एक  )    तथा उसकी मर्यादाओं का उसी के अनुरूप विधियों से ही अलग -अलग रूप से सम्यक्तया सुदृढ़ करे |  वस्तुतः मठाम्नाय श्रुति  ने  जिस   सत्ता   का   गोत्रादि विभागपूर्वक  पृथक् -पृथक् रूप से ही     उपदेश  किया हो  , श्री  आद्य शंकराचार्य भगवान की  परमपवित्र  वाणी  उस   श्रौत परम्परा  का  उल्लंघन   भला  कैसे   कर सकती है   ?   अतः  श्लोक में आये हुए ”पृथक्-पृथक्” शब्द  में  विशेष रहस्य गर्भित  है , भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित   पीठों की  पारम्परिक सत्ता पृथक् -पृथक् पद्धति से ही प्रयोक्तव्य है , इन   पृथक् -पृथक् शब्दों  से   आम्नायाः कथिता ह्येते ०  इस पूर्व श्लोक की यहाँ संसूचना  आचार्य  द्वारा  दी  गयी   है | अतः   स्पष्ट है कि परिव्राजक स्तर के संन्यासी के लिये भी शास्त्रीय विधि से ही मठ प्रयोक्तव्य हैं , जैसा  कि  –
आम्नायाः  कथिता  ह्येते  यतीनाञ्च पृथक् -पृथक्  |
ते सर्वे चतुराचार्याः नियोगेन यथाक्रमम् ||  (-महानुशा०)
अर्थात् –
परिव्राजकत्व को प्राप्त  एक संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् और यथाविधिपूर्वक प्रकृष्ट संयोजन करे |
श्लोक में आये हुए “यथाविधिः ” शब्द का भी विशेष रहस्य  है , इसका अभिप्राय यह है कि जैसी अपने अपने विभाग तक ही मर्यादित रहकर धर्मरक्षण की विधि महानुशासनम् में श्री आद्य शङ्कराचार्य ने स्पष्ट की है वैसी विधि से ही चारों पीठों का प्रयोग करे , उसमें किसी भी प्रकार का मनोवाञ्छित /कपोलकल्पित  तर्क या परिवर्तन करने का उसको कोई अधिकार नहीं है |   यथाविधिः शब्द सेवर्णाश्रमसदाचाराः० इस पूर्व वर्णित श्लोक को भगवान् श्री आद्य शङ्कराचार्य द्वारा संसूचित किया गया है , जैसा  कि  –
वर्णाश्रमसदाचाराः अस्माभिर्ये प्रसाधिताः |
रक्षणीयास्तु   एवैते   स्वे -स्वे भागे यथाविधिः || (-महानुशा०)
प्रयुञ्ज्यात्  पद  ‘प्र ‘ उपसर्ग पूर्वक रुधादिगणीय उभयपदी युजिर् योगे धातु ( सकर्मक अनिट् ) विधिलिङ्ग लकार [विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसंप्रश्नप्रार्थनेषु लिङ्ग (-पा० अष्टा० ३/३/१६१) ] एकवचन में प्रयुक्त है | संस्कृत भाषा में प्र उपसर्ग प्रकृष्ट , पूजा , आदि अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है | अतः चारो पीठों की सत्ता का बडे ही आदर के साथ सामञ्जस्य सुदृढ़ रखने का भाव यहाँ भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा दिया गया है |
शास्त्रीयमर्यादापूर्वक  ही  परिव्रज्या  प्राप्त  की जाती  है  तथा शास्त्रीय मर्यादा  पूर्वक ही  उसका  पालन करना  एक  द्विज  का  कर्त्तव्य है |  स्वयं  मनुस्मृति   भी  कहती   है  कि  यथाक्रमोक्त अनुष्ठान से  जो  द्विज परिव्रज्या आश्रम का  आश्रय लेता   है , वही  समस्त  पापों से मुक्त  हुआ  ब्रह्मैक्य भाव को  प्राप्त  करता है| (अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः | स विधूयेह पाप्मानं परम ब्रह्माधिगच्छति || – मनु० ०६/८५ )  अतः जैसे परिव्राजक- स्तर के श्री आद्य शंकराचार्य ने श्रौत- मर्यादा का सम्यक् रूप से परिपालन करते हुए यथाविधिपूर्वक ही चारों पीठों की सत्ता का सम्यक् रूप से संयोजन किया था , ऐसे ही प्रत्येक श्रेष्ठ संन्यासी का यह कर्त्तव्य है कि तदनुरूप ही वह चारों पीठों में मर्यादा संरक्षण का स्वदायित्व निर्वहन करता रहे क्योंकि एक ज्ञानवृद्ध ही धर्म -मर्यादा का वास्तविक संरक्षक अथवा संवाहक होता है | श्रेयमार्गगामी का  आचरण  लोक के लिए  प्रमाण स्वरूप होता हुआ  अनुवर्तनीय  है, अतः उसका  यह दायित्व  है  कि  शास्त्रीय परम्परा ,  शास्त्रीय मर्यादाओं  का  पालन करता हुआ  ही  लोकयात्रा  का  सम्पादन  करे |
 यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः | 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||  (-श्रीमदभगवद्गीता३/२१)
हर हर महादेव !
|| जय श्री राम ||

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