#स्वामी_विवेकानंद का साहित्य विष मिश्रित भोजन है , उसमें बहुत बातें ऐसी हैं जिनका यथार्थता से कोई लेनादेना नहीं अपितु वे...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Friday, 18 December 2015
Swami Hariharananda Sarasvati or Karpatri Ji was respected Vedant Acharya; disciple of Brahmananda Sarasvati; met Yogananda at Kumbh Mela. He was from Dashanami Sampradaya ("Tradition of Ten Names") is a Hindu monastic tradition of "single-staff renunciation" (Ekadaṇḍisannyasi)generally associated with the Advaita Vedanta tradition.
रविवार, 20 दिसंबर 2015
स्वामी विवेकानंद का साहित्य विष मिश्रित भोजन है
स्वामी विवेकानंद का साहित्य विष मिश्रित भोजन है
#स्वामी_विवेकानंद का साहित्य विष मिश्रित भोजन है , उसमें बहुत बातें ऐसी हैं जिनका यथार्थता से कोई लेनादेना नहीं अपितु वे...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Friday, 18 December 2015
गायत्री मन्त्र बहुत मर्यादित है
गायत्री मन्त्र बहुत मर्यादित है , श्रुतं में गोपाय -इस तैत्तिरीय श्रुति के अनुसार गायत्री गुप्त होती है , इसे ऐसे नहीं ब...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 19 December 2015
श्रीटोटकाष्टकम्
Sri Totakacharya
श्रीटोटकाष्टकम्
The delusion here refers to Avidyā. According to Advaitavedānta the whole world is a figment of imagination and perceived as real due to delusion. The poet is asking for removal of this delusion from his preceptor. The poet has no confusion about Śiva being Śaṅkara.
गुरुवार, 17 दिसंबर 2015
“नारायण” – नाम – रहस्य
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ||
नारायण नाम मुझे बहुत प्रिय है , सो प्यारे भगवान् श्रीमन्नारायण के कृपापात्रों के चित्ताह्लाद् के लिए इसकी व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूं –
नारायण शब्द में दो पद हैं – नार पूर्वपद है और अयन उत्तरपद |
‘नार’ पद के विविध दृष्टियों से विविध अर्थ हैं , जो आगे प्रस्तुत किये जायेंगे | प्रथम अयन शब्द पर विचार करते हैं |
‘अयन’ पद इण गतौ (अदादिगणीय ३५४ ) अथवा अय गतौ (भ्वादिगणीय ४७० ) धातु से भाव या कर्तृत्त्वादि अर्थो मे ल्युट् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होगा |
गतेस्त्रयोsर्थाः -ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्चेति -यह प्रसिद्ध ही है | भाव मे तो इतिः आयो गतिर्वा अयनम् -गति का नाम अयन है |
कारकार्थ मे यन्ति अयन्ते गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यं सोsयनः -जिसको प्राप्त होते हैं , वो अयन है |
अथवा – यन्ति अयन्ते गच्छन्ति जानन्ति वा येन सोsयनः -जिसके द्वारा किसी को प्राप्त होते है या जानते हैं , वो अयन है |
अथवा – यन्ति अयन्ते यस्मिन् सोsयनः – जिसमें गति करते हैं , जो सबकी सहज क्रिया का आधार है -आश्रय है , वो अयन है |
अर्थात् गति , गंतव्यस्थान , गतिसाधन , ज्ञानसाधन , आश्रयस्थान , शरण आदि को अयन कहा जाता है |
मनु ने अप् = आपः को नारा कहा है (आपो नारा इति प्रोक्ता ० -मनु० ०१/१०) | नृ नये धातु से कर्तृत्व मे ण प्रत्यय ( ज्वलितिकसन्तेभ्यो ण – अष्टा ० ३/१/१४०) करने पर नार शब्द सिद्ध होगा | नार से स्त्रीत्व मे टाप् प्रत्यय ( अजाद्यतष्टाप् -अष्टा ० ४/१/३) करने पर नारा बनेगा |
नरयन्ति नृणन्ति नयन्ति संघातरूपतां पदार्थान् यास्ता आपो नारा – जो पदार्थ को संघात रूप प्रदान करते हैं , वे जल (आपः ) नारा कहलाते हैं |
अथवा – नरयति नृणाति नयतीति वा स नरोsग्निः -तस्य नरस्याग्नेः सूनवो नाराः आपः -नयन (मार्गदर्शन ) करने वाला अग्नि नर कहलाता है , उससे उत्पन्न जल (अग्नेरापः – तै० उप० २/१) उसके अपत्यवत् होने के कारण नारा कहलायेंगे |
नारायणमयनो नारायण: – अर्थात् उन नारा(आपः) का अयन (आश्रयस्थान) होने से नारायण हैं |
अथवा – नाराः आपः अयनं ज्ञानप्राप्तिसाधनं यस्य स नारायणः – जल (आपः) उस परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कराने वाला है – उसकी महिमा की ओर संकेत करने वाले हैं , इसलिए वे नारायण हैं |
नरयति नृणाति नयति प्राणिनः कर्मफ़लानिति नरः परमात्मा – मनुष्यों को कर्मफल की ओर ले जाने के कारण परमात्मा नर है |
नरस्येमे मुक्ताजना: – उस नर (परमात्मा ) के भक्तजन (मुक्तावस्था प्राप्त ) जो लोग हैं , वे नार हैं | इस दृष्टि से नाराणामयनो नारायणः -उन मुक्तों के जो आश्रय स्थान या प्राप्तव्य तत्त्व परमात्मा हैं , उनका नाम नारायण है |
नर संबंधी जन्म या कर्मफल आदि को नार कहेंगे ( ‘नरस्येदं नारम् ‘ तस्येदम् -अष्टा ० ४/३/१२० से अण् ) , उस नार (नरजन्म) अथवा कर्मफ़ल को जिसके आश्रय से प्राप्त होते हैं , वह परमेश्वर नारायण हैं |
(अत्र ध्यातव्यम् – “तस्येदम्” (-पा०सू० ४/३/१२०) इत्यण्प्रत्ययः | यद्यपि अणि कृते ङीप्प्रत्ययः प्राप्तस्तथापि छान्दसलक्षणैरपि स्मृतिषु व्यवहारात् ” सर्वे विधयश्छन्दसि विकल्प्यन्ते ” इति पाक्षिको ङीप्प्रत्ययस्तस्याभावपक्षे सामान्यलक्षणप्राप्ते टापि कृते नारा इति रूप सिद्धिः | )
न शब्द निषेधार्थक है अर कहते हैं पैनी या नुकीली वस्तु को , जो शरीर मे सहज प्रवेश करके चुभती हो या कष्ट प्रदान करती हो | इस सहज -प्रवेश – सादृश्य से अथवा कष्टप्रदानसाम्य से दोष भी अर या अरे कहलायेंगे |
इस दृष्टि से –
अराः = दोषाः , न अराः (=नाराः=) = गुणाः , नाराणां गुणानामयनम् पराकाष्ठास्थानम् नारायणः – अर्थात् समस्त शुभगुणों का परमधाम परमात्मा नारायण है क्योंकि उसमें गुण ही गुण हैं , दोषों की गंध भी उसमें नहीं है |
इस प्रकार –
अविद्यमाना अरा दोषा येषु ते वेदा नाराः , तेषामयनो नारायणः |
अर्थात् सब् प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण वेद नार हैं , उनका अयन (मुख्य उद्गम – स्थान ) होने से परमात्मा नारायण है |
रमणं रः (रमु क्रीडायाम् से बाहुलाकाद् भाव में ड प्रत्यय -रम् + ड =रः ) = आनन्दः |
न रः = अरः (अरमणम् ) शोको दुःखम् | न अरः = नारः ( नारमणम् ) = आनन्दः |
नारः = आनन्दः = अयनं स्वरूपं यस्य स नारायण : |
नार अर्थात् आनन्द ही स्वरूप है जिसका , वह परमात्मा नारायण है |
महर्षि वेदव्यास जी ने तो स्पष्ट रूप से नित्य निर्गुण परमात्मा का नाम नारायण बताया है –
तत्र यः परमात्मा हि स नित्यं निर्गुणः स्मृतः |
स हि नारायणो ज्ञेयः सर्वात्मा पुरुषो हि सः ||
(-महा० शा० ३५१/१४ )
श्री आद्य शङ्कराचार्य भगवान् कहते हैं कि –
नर आत्मा , ततो जातान्याकाशादीनि नाराणि कार्याणि तानि अयं कारणात्मना व्याप्नोति , अतश्च तान्ययनमस्येति नारायणः |
अर्थात् नर आत्मा को कहते हैं , उससे उत्पन्न हुए आकाशादि नार हैं , उन कार्यरूप नारों को कारणरूप से व्याप्त करते हैं , इसलिए वे उनके अयन (आश्रय वा घर ) हैं अतः भगवान् का नाम नारायण है |
नराणां जीवानामयनत्वात्प्रलय इति वा नारायणः ” यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ( तै० उप० ३/१) इति श्रुतेः , अर्थात् प्रलय काल में नार अर्थात् जीवों के अयन होने के कारण नारायण हैं | श्रुति कहती है – जिसमें कि सब जीव मरकर प्रविष्ट होते हैं , वह नारायण हैं |
कलियुग केवल नाम आधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा ||
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
नमो नारायणाय |
|| जय श्री राम ||
श्रीमद शंकराचार्य जी की दिग्विजय यात्रा का एक मर्मस्पर्शी प्रसंग जब " सौन्दर्य लहरी " की रचना हुई।
श्रीमद शंकराचार्य जी की दिग्विजय यात्रा का एक म...र्मस्पर्शी प्रसंग जब " सौन्दर्य लहरी " की रचना हुई।
"प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं आचार्य, शास्त्रार्थ में प्रत्यक्ष है तर्क और प्रमाण है प्रतितर्क",
युवा संन्यासी शंकर आत्मविश्वास भरी हँसी हँस पड़े, "तर्क नहीं तो सारी कल्पना व्यर्थ है, ऐसी स्थिति में पराजय पत्र पर हस्ताक्षर ही उचित होगा।"
"मैं हस्ताक्षर करूँ, पराजय पत्र पर? मदांध युवक।" उत्तरीय झटक कर अभिनव शास्त्री क्रोधपूर्वक त्रिपुंड के स्वेद विन्दु पोंछने लगे। "ये बाहुएँ पराजय पत्र लिखेंगी जिनके द्वारा हवन कुण्ड में एक आहुति पड़े, तो आर्यावर्त में खंड प्रलय का हाहाकार मच सकता है। यह मस्तक पराजय वेदना से झुकेगा, जो अपनी तंत्र साधना के अहम् से त्रिलोक को झुकाने की सामर्थ्य रखता है?"
"स्पष्ट ही यह सारा प्रलाप आहत मान का प्रण भरने के लिए है, आचार्य! किन्तु शंकर को इससे भय नहीं। उसे तो शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान से पराजय पत्र प्राप्त करने में ही..."
"दे सकता हूँ, तू चाहे तो वह भी दे सकता हूँ," अभिनव शास्त्री झंझा में पड़े बेंत की तरह काँप रहे थे, "किंतु समस्त पंडित जन ध्यानपूर्वक सुनें, मेरा यह पराजय-पत्र इस जिह्वापटु, तर्क दुष्ट, पल्लव ग्राहि मुंडित के समक्ष तब तक तंत्रशास्त्र की पराजय के रूप में न लिया जाय......."
"कब तक आचार्य श्रेष्ठ?" शंकर के मुख पर अभी भी व्यंग्य की सहस्रधार फूट रही थी। "
"जब तक मेरा तंत्र रक्त से इस पराजय पत्र का कलंक लेख न धो डाले।"
"स्वीकार है, किंतु अभी तो उस ’कलंक लेख’ पर हस्ताक्षर कर ही दें तंत्राचार्य?"
युवक शंकर ने उपस्थित पंडित वर्ग के चेहरे पर अपने लिए त्रास और भय की भावना पढ़कर भी अपना हठ न छोड़ा।
आश्रम का सारा वातावरण पीड़ा और निराशा भरी मृत्यु का साकार रूप बन गया। कुशाआसन पर पट लेटे योगी शंकराचार्य के मुँह से निकली आह नश्वर सांसारिक वेदना की क्षतिक विजय का घोष कर रही थी। वैद्यों, शल्य शास्त्रियों ने उन्हें देखकर निराश भाव से सर हिला दिया। शास्त्रार्थ में अभिनव शास्त्री का माँन मर्दन करने के दूसरे ही दिन भगन्दर का जो पूर्वरूप प्रकट हुआ, वह अब योगी शंकर को असाध्य सांघातिक उपासर्गों के यमदूतों द्वारा धमका रहा था।
"आह...माँ....माँ...." कष्ट से करवट बदलते संन्यासी ने अपनी वेदना का चरम निवेदन ममतामयी जननी के दरबार में करके संसारी पुरुषों-सा रूप प्रकट कर दिया।
"बहुत पीड़ा है गुरुदेव?" संन्यासी के रूप में शंकर के अनुयायी से सुरेश्वराचार्य और गृहस्थ के रूप में विदुषी शारदा के पति कर्मकांडी मंडन मिश्र के नाम से विख्यात एक शिष्य ने सह अनुभूति से पीड़ित हो पूछा।
"पीड़ा नहीं, मृत्यु का साक्षात रूप," वेदना बढ़ी होने पर भी शंकर मुस्करा उठे, "अभिनव आचार्य ने सत्य ही कहा था, किंतु मैंने तंत्र जैसी प्रत्यक्ष विद्या के लिए प्रमाण का हठ किया। अब प्रमाण मिला भी तो ऐसी शोचनीय दशा में जब मैं उसे स्वीकार भी न कर पाऊँगा।"
"क्या रहस्य है गुरुदेव?" चरण-सेवा छोड़कर उत्सुक सुरेश्वर आगे खिसक आये।
"कुछ नहीं। अभिमानी तांत्रिक ने अपनी पराजय का प्रायश्चित कराया है शंकर से, एकांत वन की गुफा में बैठा वह मारण प्रयोग में लिप्त है।"
"ओह आर्य!" जगद्गुरु के चारों आद्य शिष्य आक्रोशमद पीकर मतवाले हो उठे।
"हाँ आयुष्मानों! तांत्रिक का मारण न सह सका तो यह हंस अब हस्त पिंजर में न रहेगा।"
अन्य तीनों शिष्यों ने तो चिन्ता मग्न हो गुरु चरणों में सर झुका कर विवशता प्रकट कर दी, किंतु चौथा अपने चेहरे पर प्रतिहिंसा की कठोर रेखाएँ छिटकाता वन प्रदेश को चल दिया।
प्रहर भर पश्चात्।
निर्जन वन की उस झाड़-झंखाड़ भरी पहाड़ी गुफा का अंधकार भयंकर चीत्कार से सिहर उठा। शंकर का पुतला बनाकर उसके मर्मस्थानों में लौह कीले गाड़े हुए मारण प्रयोग में रत अभिनव पर प्रतिहिंसा विक्षिप्त शिष्य ने खड्ग का भरपूर प्रहार किया था। कुछ देर पश्चात् रक्त सने शस्त्र से लाल बिन्दु टपकाता वह गुरु के निकट उपस्थित हुआ।
"मैंने उसका शिरच्छेद कर दिया देव", शिष्य ने रक्त सना खड्ग शंकर के चरणों में रख कर हिंसा वीभत्स स्वर में कहा, "उस पिशाच विद्यादक्ष नर राक्षस का यही प्रतिकार........"
"शांतं पापं...ये क्या किया मूर्ख," पीड़ा की अवहेलना कर जगद्गुरु बलात आसन पर उठ बैठे, " तंत्र विद्या-पारंगत उस अकल्मष मनीषी का वध कर तूने भरत खंड के एक नर रत्न का विनाश कर दिया।"
"इस हत्या का प्रायश्चित कर लूँगा गुरुदेव, किंतु आपका शरीर न रहता तो भरत खंड का सद्यः ज्वलित ज्ञान दीप ही बुझ जाता। उस हानि का शोक भला कैसे.....।"
"उस हानि का पातक भी तेरे ही भाग्य में था," करुणा मिश्रित विचित्र हँसी हँस कर शंकर ने कहा, "मारण प्रयोग द्वारा उत्पन्न यह व्रण त्रिलोकी का कोई शल्य वैद्य न पूरित कर सकेगा। अभिनव के जीवित रहते मेरे जीवन की भी क्षीण आशा थी, किंतु तूने उस पर तुषारापात कर दिया।"
पश्चाताप हत शिष्य अवाक् था। संन्यासी शंकर ने उसके मन का दूसरा संकल्प ’अपने ही शस्त्र से आत्मघात’ का आभास पा खड्ग उठा कर अन्य शिष्य को दे दिया।
मर्म विधे पक्षी के पीड़ित डैनों की अन्तिम उड़ान, जगन्माता के अभयकारी आँचल का नीड़। आद्य शंकराचार्य के अन्तर से उठता स्वर आत्मविश्वास में परिवर्तित हो चुका था। एक तांत्रिक के सांघातिक प्रयोग का निवारण उस ’महाभय विनाशिनि, महाकारुण्य रूपिणि’ के अतिरिक्त और कौन कर सकता था! और आत्मविश्वास से प्रेरित योगी शंकर के मुख से मातृ-शक्ति की वंदना के बोल ’सौंदर्य लहरी’ बन कर फूट निकले। जगद्गुरु के एक-एक श्लोक व्रणरोपक लेप बनकर, असाध्य व्रण को भरने लगे।
स्तुतिकार शंकर ने अपनी करुणार्द्र वाणी में पहली बार शक्ति के सहज स्नेहमय रूप को स्वीकार किया और शक्ति के बिना अपने पूर्व प्रतिपादित शिव को ’शव’ के समान अर्थहीन, निस्पंद माना।
और एक घन घिरी काली रात जब सारा देश निद्रारूपिणी प्रकृति माँ की गोद में बेसुध था, योगी शंकर ने अपने बाल सुलभ अपराध की स्वीकारोक्ति से माँ के करुण हृदय के तार-तार झंकृत कर दिए। ’सौंदर्य लहरी’ का सौंवा श्लोक पूरा होने से पहले ही जगन्माता ने अपने वरद पुत्र को असाध्य से मुक्त कर दिया।
जयशिवशक्ति !!!
ज्योतिष्पीठाधीश्वर श्री श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज
https://www.youtube.com/watch?v=SJH2rHB_V_Y
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Thursday, 10 December 2015
देवी कवच - देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्
श्री आद्यशंकराचार्य-मत पर आक्षेपकर्त्ताओं की धज्जियां
आक्षेप – शास्त्रानभिज्ञ या हठधर्मी पापयोनी कहने लगे हैं …….पापी को सब पापी ही दीखते हैं !
उत्तर – वाह रे धर्मात्मा ! जितनी आयु में तुझे लंगोट ठीक से बांधना नहीं आता होगा उस आयु में चारों वेद हृदयंगम कर लिए थे भगवान शंकर ने ! सो शास्त्रानभिज्ञता के इस आक्षेप पर और क्या कहें कि कौन है शास्त्रानभिज्ञ और कौन है अभिज्ञ !
पापी ? जो व्यक्ति बाल्यावस्थामें ही निवृत्ति मार्ग परायण हो गया, योग का एक जिज्ञासु भी आपके अभीष्ट पापविशेष को तो छोडिये , स्वयं शब्दब्रह्म का अतिवर्तन कर जाता है फिर परमयोगज्ञ, योगसिद्ध महायोगी महात्माओं का तो कहना ही क्या ? (जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते)
भगवान शंकर तो सबके आत्मा है , जो उनको पापी कहता है वह स्वयं को ही पापी कहने के दोष का भागी हो जाता है , किमधिकम् ?
आक्षेप – छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है | समाधान – ठीक से पढो बालक ! “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |
अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –
प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |
उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?
पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?
पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |
अस्तु , आगे चलिए –
क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३
यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |
बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –
///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |
|| जय श्री राम ||
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: | द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् || श्लोक भाषाय
मानमोह विगत भये, संग दोष जीत लिये, आत्मा में स्थित और कामना निवृत्त है | सुख-दुःख के द्वन्द्वों से मुक्त ऐसा ज्ञानीचित...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 12 December 2015
काशी के घाट पर सारे देश के सामने एक तेली और एक म्लेच्छ वेदमंत्रों से तिलक आचमन पूर्वक अभिषेक प्राप्त किये
...........कहाँ गयी श्री आद्य शंकराचार्य की परम्परा ??? कहाँ गया उनके आदेशों /उपदेशों का मान ???...
अब नहीं बोला कोई स्वघोषित ठेकेदार ....
....................बहती गंगा नहीं है अन्यथा हाथ धो लेते स्वार्थी !
तथाकथित भगवाधारी धर्मधूर्त जितना जोश स्वार्थपूर्ति में दिखाते हैं , उसका एक अंश भी आजत तक परमार्थ में दिखाए होते तो सनातन धर्म की आज ये दुर्दशा न हो रही होती !
|| जय श्रीराम ||
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 12 December 2015
श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषि
शिखा (चोटी) धारण की आवश्यकता
प्रत्येक बात का धर्म के साध सम्बन्ध है और धर्म का सम्बन्ध कल्याणके साथ
है । हिन्दूधर्ममेँ जो-जो नियम बताये गये हैँ, वे सब-के-सब नियम मनुष्य
के कल्याण के साथ सम्बन्ध रखते हैँ । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैँ,
कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैँ । हिन्दूधर्ममेँ विद्याध्ययनका भी सम्बन्ध
कल्याणके साथ है । संस्कृत व्याकरण भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे
परिणाममेँ परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ! इसलिए हिन्दूधर्मके किसी
नियमका त्याग करना वास्तवमेँ अपने कल्याणका त्याग करना है !
जैसे, घड़ी मेँ छोटे-बड़े अनेक पुर्जे होते हैँ । उसमेँ बड़े पुर्जे का जो
महत्त्व है, वही महत्त्व छोटे पुर्जे का भी है । बड़ा पुर्जा अपनी जगह
पूरा है और छोटा पुर्जा अपनी जगह पूरा है । छोटे-से-छोटा पुर्जा भी यदि
निकाल दिया जाय तो घड़ी बन्द हो जायगी । इसी तरह हिन्दूधर्म की
छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूरी है और कल्याण करने मेँ सहायक है ।
छोटी-सी शिखा अर्थात् चोटी भी अपनी जगह पूरी है और मनुष्य के कल्याणमेँ
सहायक है । शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याण का त्याग करना है
!...
* शिखा अर्थात चोटी हिन्दुओँ का प्रधान चिह्न है । हिन्दुओँ मेँ चोटी
रखने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है । परंतु अब आपने इसका त्याग
कर दिया है- यह बड़े भारी नुकसान की बात है । विचार करेँ, चोटी न रखने के
लिए अथवा चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीँ किया, किसी ने आपसे
कहा भी नहीँ, आपको आज्ञा भी नहीँ दी, फिर भी आपने चोटी काट ली तो आप मानो
कलियुगके अनुयायी बन गये ! यह कलियुग का प्रभाव है; क्योँकि उसे सबको
नरकोँ मेँ ले जाना है । चोटी कट जानेसे नरकोँ मेँ जाना सुगम हो जायगा ।
इसलिए आपसे प्रार्थना है कि चोटीको साधारण समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
चोटी रखना मामूली दीखता है, पर यह मामूली काम नहीँ है ।
अग्नि का नाम 'शिखी' है । शिखी उसको कहा जाता है, जिसकी शिखा हो-'शिखा
यस्यास्तीति स शिखी'। वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव
है-'अग्निर्देवो द्विजातीनम्'। अतः शिखा हमारे इष्टदेव (अग्नि) का प्रतीक
है ।...
* शिखा काटने से मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है और अपने धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । प्राचीनकाल मेँ किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के
समान माना जाता था । धर्म के साथ शिखा का अटूट सम्बन्ध है । इसलिए शिखा
काटने पर मनुष्य धर्मच्युत हो जाता है । बड़े दुःखकी बात है आज हिन्दूलोग
मुसलमानोँ-ईसाईयोँ के प्रभाव मेँ आकर अपने हाथोँ अपनी शिखा काट रहे हैँ !
खुद अपने धर्म का नाश कर रहे हैँ ! यह हमारी गुलामी की पहचान है । भगवान
ने गीतामेँ कहा है-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ (गीता १६ । २३-२४)
'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न
सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को
प्राप्त होता है ।'
'अतः तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामेँ शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा
जानकर तू इस लोक मेँ शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है
अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्यकर्म करने चाहिए ।'
चोटी रखना शास्त्र का विधान है । चाहे सुख मिले या दुःख मिले, हमेँ तो
शास्त्रके विधानके अनुसार चलना है । भगवान जो कहते हैँ, सन्त-महापुरुष जो
कहते हैँ, शास्त्र जो कहते हैँ, उसके अनुसार चलनेमेँ ही हमारा वास्तविक
हित है । भगवान और उनके भक्त -ये दोनोँ ही निःस्वार्थभावसे सबका हित
करनेवाले हैँ-
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥ (मानस, उत्तर॰ ४७ । ३)
इसलिए इनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला लोक और परलोक दोनोँमेँ सुख पाता है
।...
* जिन्होँने अपनी उन्नति कर ली है, जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको
तत्त्व की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे सन्त-महात्माओँकी बात मान लेनी चाहिए;
क्योँकि उनकी बुद्धिका नतीजा अच्छा हुआ है । उनकी बात माननेमेँ ही हमारा
लाभ है । अपनी बुद्धि से अबतक हमने कितनी उन्नति की है? क्या तत्त्वकी
प्राप्ति कर ली है? इसलिए भगवान, शास्त्र और संतोँकी बात मानकर शिखा धारण
कर लेनी चाहिए । अगर उनकी बात समझमेँ न आये तो भी मान लेनी चाहिए । हमने
आजतक अपनी समझसे काम किया तो कितना लाभ लिया? जैसे, किसी ने व्यापार मेँ
बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेँगे तो हमेँ भी लाभ होगा
। उनको लाभ हुआ है तो हमेँ लाभ क्योँ नहीँ होगा? ऐसे ही जिन
सन्त-महात्माओँने परमात्मप्राप्ति कर ली है; अशान्ति, दुःख, सन्ताप आदिको
मिटा दिया, उनकी बात मानेँगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा ।
मैँ चोटी रखनेकी बात कहता हूँ तो आपके अहित के लिए नहीँ कहता हूँ । आपको
दुःख हो जाय, नुकसान हो जाय, संताप हो जाय-ऐसा मेरा बिल्कुल उद्देश्य
नहीँ है । मैँ आपके हित की बात कहता हूँ । आपके लोक और परलोक दोनोँ सुधर
जायँ, ऐसी बात कहता हूँ । वही बात कहता हूँ जो पीढ़ियोँसे आपकी
वंश-परम्परा मेँ चली आयी है । एक चोटी रखनेसे आपका क्या नुकसान होता है?
आपको क्या दोष लगता है? क्या पाप लगता है? आपके जीवन मेँ क्या अड़चन आती
है? चोटी रखनेकी जो परंपरा सदा से थी, उसका त्याग आपने किसके कहने से कर
दिया? किस सन्तके कहने से, किस पुराणके कहने से, किस शास्त्रकी आज्ञा से,
किस वेदकी आज्ञासे आपने चोटी रखन छोड़ दिया?
चोटी रखना बहुत सुगम काम है, पर आपके लिए कठिन हो रहा है; क्योँकि आपने
उसको छोड़ दिया है । यह बात आपकी पीढ़ियोँ से है । आपके बाप, दादा, परदादा
आदि सब परम्परा से चोटी रखते आये हैँ, पर अब आपने इसका त्याग कर दिया,
इसलिए अब आपको चोटी रखनेमेँ कठिनता हो रही है । विचार करेँ, चोटी रखना
छोड़ देनेसे आपको क्या लाभ हुआ? और अब आप चोटी रख लेँ तो क्या नुकसान
होगा? चोटी रखने से आपको पैसोँकी हानि होती हो, धर्मकी हानि होती हो,
स्वास्थ्यकी हानी होती हो, आपको बड़ा भारी दुःख मिलता हो तो बतायेँ ! चोटी
न रखने से लाभ तो कोई-सा भी नहीँ है, पर हानि बड़ी भारी है ! चोटी के बिना
आपका देवपूजन तथा श्राद्ध-तर्पण निष्फल हो जाता है, आपके दान-पुण्य आदि
सब शुभकर्म निष्फल हो जाते हैँ । इसलिए चोटी को मामुली समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
पहले सभी द्विज लोग चोटी रखते थे । पर हमारे देखते-देखते थोड़े वर्षोँमेँ आदमी शिखारहित हो गये ।
अब प्रायः लोगोँ की शिखा नहीँ दीखती । शिखा और सूत्र (जनेऊ) का परस्पर घनिष्ठ
सम्बन्ध है । आश्चर्य की बात है कि आज ऐसे लोग भी हैँ; जिनका सूत्र तो
है, पर शिखा नहीँ है ! यह कितने पतन की बात है ! अगर यही दशा रही तो आगे
आपको कौन कहेगा कि चोटी रखो? और क्योँ कहेगा? कहनेसे उसको क्या लाभ?
शिखा पहचान है । यह आपकी की रक्षा करनेवाली है ।
प्रश्न - क्या शूद्र को शिखा रखनी चाहिए ?
उत्तर - शूद्र को शिखा रखने का अधिकार नहीं ।।
अपने वर्णाश्रम धर्म रूपी तप के द्वारा श्री हरि की आराधना से अधिक श्री हरि को संतुष्ट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।।
अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से मनुष्य में स्वतः वैराग्यादि साधन -चतुष्टय का प्राकट्य हो जाता है ।।
{ स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् । साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि चतुष्टयम् ।। }
जनेऊ और शिखा सबके लिए नहीँ है, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए है,
जैसे मुसलमानोँ के लिए सुन्नत है, ऐसे ही हिन्दुओँ द्विज वर्ण के लिए के लिए शिखा है ।
सुन्नत के बिना कोई मुसलमान नहीँ मिलेगा, पर शिखा के बिना आज
हिन्दुओँका समुदाय-का-समुदाय मिल जायगा । मुसलमान और ईसाई बड़े जोरोँ से
अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैँ और हिन्दुओँ का धर्म-परिवर्तन करनेकी नयी-नयी योजनाएँ बना रहे हैँ ।
आपने अपनी चोटी कटवाकर उनके प्रचार-कार्य को सुगम बना दिया है !
इसलिए समय रहते हिन्दुओँ को सावधान हो जाना चाहिए।
मुसलमान अपने धर्म का प्रचार मूर्खता से करते हैँ और ईसाई बुद्धिमत्ता से ।
मुसलमान तो तलवार के जोरसे जबर्दस्ती धर्मपरिवर्तन करते हैँ, पर
ईसाई बाहर से सेवा करके भीतर-ही-भीतर (गुप्त रीतिसे) धर्म-परिवर्तन करते हैँ ।
वे स्कूल खोलते हैँ और बालकोँ पर अपने धर्मके संस्कार डालते हैँ ।
इस काममेँ ईसाई सफल हो गये ! मुसलमानोँ और ईसाइयोँका उद्देश्य
मनुष्यमात्र का कल्याण करना नहीँ है, प्रत्युत अपनी संख्या बढ़ाना है, जिससे
उनका राज्य हो जाय । कलियुगका प्रभाव प्रतिवर्ष, प्रतिमास, प्रतिदिन
जोरोँसे बढ़ रहा है । लोगोँकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है । मनुष्यमात्र का
कल्याण चाहनेवाली हिन्दू-संस्कृति नष्ट हो रही है । हिन्दू स्वयं ही अपनी
संस्कृति का नाश करेँगे तो रक्षा कौन करेगा?...
प्रश्न- चोटी रखने से शर्म आती है, वह कैसे छुटे?
उत्तर- आश्चर्यकी बात है कि व्यापार आदिमेँ बेईमानी, झूठ-कपट करनेमेँ
शर्म नही, गर्भपात आदि पाप करनेमेँ शर्म नहीँ आती, चोरी, विश्वासघात आदि
करते समय शर्म नहीँ आती, पर चोटी रखनेमेँ शर्म आती है ! आपकी शर्म ठीक है
या भगवान और संतो की बात मानना, उनको प्रसन्न करना ठीक है? आप चोटी रखो
तो आरम्भमेँ शर्म आयेगी, पर पीछे सब ठीक हो जायेगा ।...
लोग हँसी उड़ायेँ, पागल कहेँ तो उसको सह लो, पर धर्मका त्याग मत करो ।
आपका धर्म आपके साथ चलेगा, हँसी-दिल्लगी आपके साथ नहीँ चलेगी । लोगोँकी
हँसी से आप डरो मत । लोग पहले हँसी उड़ायेँगे, पर बादमेँ आदर करने लगेँगे
कि यह अपने धर्म का पक्का आदमी है ।...
अतः उनकी हँसी की परवाह न करके अपने धर्मका पालन करना चाहिए ।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मँ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५।६३)
'कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्मका त्याग न करे ।
धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य हैँ । इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और
उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।'
भविष्य पुराण के जिस भाग में मुहम्मदके वर्णन है ,वह मूल संस्कृत और उसके हिंदी अनुवाद केसाथ दिया जा रहा है |
सोमवार, 7 दिसंबर 2015
मठाम्नाय महानुशासनम्
घर पर रहकर ही संस्कृत भाषा सीखने का सरल मार्ग
घर पर रहकर ही संस्कृत भाषा सीखने का सरल मार्ग,आपकी इच्छा है , तो आपके लिए सब सम्भव है |जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू | सो...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Sunday, 6 December 2015
दर्शन अद्वैत.
मूषक - सर्प , प्रेत - भभूत , वृषभ -सिंह , सर्प - मयूर ......मूषक = श्री गणपति के वाहनसर्प = शिव के कण्ठहारप्रेत = शि...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Sunday, 6 December 2015
गुरुवार, 3 दिसंबर 2015
विचार प्रेषक श्री आद्य शंकराचार्य
आयु बीत जाने के बाद काम विकार कहाँ ? पानी सूख जाने पर फिर कैसा सरोवर ?,धन चले जाने पर किसका परिवार ? और तत्त्व ज्ञान होने के बाद फिर कैसा संसार ?-#श्रीआद्यशंकराचार्य |#भज_गोविन्दं_मूढमते||जयश्रीराम||
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Tuesday, 1 December 2015
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- विचार प्रेषक श्री आद्य शंकराचार्य
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