रविवार, 29 नवंबर 2015

चलचित्र दर्शन सोमनाथ जी


दर्शन सोमनाथ जी

#दर्शन_सोमनाथ_जी या #ज्योतिर्लिङ्ग_सौराष्ट्रे_सोमनाथं Glimpses of #Shree_Somnath.. Video made by #Vijaygiri_Films Getting extra ordinary response on this video we would like to thanks #Shree_Somnath_Temple, #Shri_Somnath_Trust and especially #Shri_Pravin_K_Laheri and #Shri_Kuntal_Sanghvi to give us this opportunity to make this Video. Above all English words by #Vijaygiri_Bava

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 28 November 2015

शनिवार, 28 नवंबर 2015

पंचमुखी यानी शिव या ईश्वर या भगवान या परमात्मा


Though bearing each a different name, form, and set of qualities, these are all aspects of a one Supreme Being - Śiva,...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 28 November 2015

बुधवार, 25 नवंबर 2015

‪दर्शन माँ गंगा‬ और ‪आनंदवन‬


Darśana #माँ_गंगा और #आनंदवन

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

षड्दर्शन‬


#षड्दर्शन का मर्म ---> कर्म और ज्ञान - ये दो ही मार्ग हैं ( द्वाविमौ पन्थानौ ) , इसी के अनुसार षड्दर्शन भी व्यवस्थित हैं...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

गीता‬ पर ‪शांकर भाष्य


#स्त्री, #वैश्य तथा #शूद्र - ये तीनों #पापयोनियाँ हैं , पाप योनियाँ इसलिए हैं क्योंकि इन प्राणियोंके जन्म में पाप का प्र...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

‎गीता‬


#गीता पर अनगिनत #भाष्य और #व्याख्याएं हैं ,अनुमानतः ये संख्या हजारों में होगी , पर ९० % से अधिक भाष्य व्याख्याएं केवल और...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

सुविचार


जो कहते हैं भारत असहिष्णु देश है , उनसे ये पूछना चाहिए कि आप किसे भारत कह रहे हैं ? भूमिखंड विशेष को या भूमिखंड विशेष के...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Tuesday, 24 November 2015

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

दर्शन भगवान सोमनाथ


20 NOV15 SAYAM SHRINGAR DARSHAN SHREE SOMNATH MAHADEV

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Friday, 20 November 2015

दर्शन सोमनाथ

20NOV15-SHRINGAR DARSHAN-7AM-Dhruv_PRO------------------------------------------------------------------प्रातःश्लोक(शि...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Friday, 20 November 2015

रामायण- मीमांसा

श्रीमद्वाल्मीकि  – रामायण  पर    सनातनधर्म  विरोधी   कामिक  बुल्के  जैसे  कुतार्किकों  सहित  समस्त   पाश्चात्य – विचारधारा  के   संवाहकों   द्वारा  किये  गए  समस्त   आक्षेपों    का  परमपूज्य  धर्मसम्राट्  स्वामी  श्री  करपात्री  जी  महाराज   के  कृपा  – कटाक्ष  से    मुंहतोड़  परिहारात्मक –  प्रत्युत्तर  : –
रामायण- मीमांसा

धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !

मुक्ति उपनिषद्‬


Muktikā (संस्कृत: "मुक्ति ") 108 #उपनिषद् (Upanishads) के कैनन को दर्शाता है। सबसे पुराने 500 ईसा पूर्व और मध्यकालीन य...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Thursday, 19 November 2015

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

एक संदेश


In progress to attain Atma Shatkam chant राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ||Maya...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Wednesday, 18 November 2015

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी


श्री महाकालेश्वर की कार्तिक एवं अगहन मास की प्रथम सवारी निकली गयी


शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

दर्शन सोमनाथ


12 NOV15 SAYAM SHRINGAR DARSHAN SHREE SOMNATH MAHADEV

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Thursday, November 12, 2015

बुधवार, 11 नवंबर 2015

शुभ काल भैरव


शुभ काल भैरव

Posted by Shri Kashi Vishwanath Temple on Wednesday, November 11, 2015

शुभ दीवाली


श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन


सोमनाथ दर्शन


11NOV15 SAYAM SHRINGAR DARSHAN SHREE SOMNATH MAHADEVVIRAJBEN (PRO)

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Wednesday, November 11, 2015

श्री शांता दुर्गा विजयते ||


सोमवार, 9 नवंबर 2015

दर्शन भगवान सोमनाथ


रविवार, 8 नवंबर 2015

आज्यं मेधः गावस्तण्डुलाः

वेद ने विशेष रूपसे "गौ" को बार बार "अघ्न्या" कहा गया है ( इसीसे स्पष्ट है कि यज्ञार्थ वध्य पशुओं की भांति गो को अन्य पशुओं के सदृश नहीं ... है ) अतः स्पष्ट है कि किसी भी रूप में गाय का वध नहीं किया जा सकता |' मेध ' शब्द सर्वत्र हिंसा वाचक नहीं होता अन्यथा तो "सर्वमेध यज्ञ " में सभी (यजमानादि ) के वध्य की कल्पना प्रसक्त होने लगेगी , ''गोमेध'' शब्द में प्रयुक्त 'गो' शब्द गोविकार स्वरूप गोरस का वाचक है , अन्नं हि गौ: (- शतपथब्राह्मण ४/३/४/२५) , आज्यं मेधः गावस्तण्डुलाः (-अथर्ववेद ११/२/५) | एतावता गोमेध का अभिप्राय है कि आज्यादि गोरस की प्रधानता अन्न से जो यज्ञविशेष होता है , वही "गोमेध" है |
-पूज्य धर्मसम्राट स्वामी श्री करपात्री जी महाराज |
श्रुति में गौओं को अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है, फिर भला किसके द्वारा ये मारने योग्या हो सकती हैं ? जो पुरुष गौ (गाय) अथवा बैलों को मारता है, वह महान पाप करता है -
अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति |
महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाssलभेत् तु यः || (- महाभारत,शान्तिपर्व २६२/४७ )

|| जय श्रीराम ||

प्रश्न- शास्त्र प्रमाण क्या हैं ?

प्रश्न- शास्त्र प्रमाण क्या हैं ?
उत्तर - १- वेद
२- वेदाङ्ग- वेदोपाङ्ग
३- स्मृति...
४- इतिहास (रामायण, महाभारत )
५- पुराण

इनका कोइ भी वाक्य - प्रमाण शास्त्र प्रमाण है |
प्रश्न - हिन्दू कौन है ?
उत्तर - जो शास्त्र प्रमाण को शिरोधार्य करके स्वीकारे , वही हिन्दू है |
|| जय श्रीराम ||

द कम्प्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानन्द , भाग- ०३ or The complete works of Swami Vivekanand , Part - 03


स्वामी विवेकानन्द ( Swami Vivekananda) के इस विचार का उनके चेले स्पष्टीकरण दें (द कम्प्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानन्द...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, November 7, 2015

जगतः पितरौ वन्दे - पार्वतीपरमेश्वरौ


जगतः पितरौ वन्दे -पार्वतीपरमेश्वरौ -१- पार्वतीप + रमेश्वरः = शिव ( प इत्युक्ते पतिः = पार्वतीं पातिः पालयति रक्षयति ...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, November 7, 2015

बुधवार, 4 नवंबर 2015

शांता दुर्गा


jai Shanta durga kiजय #शांता_दुर्गा की |

Posted by Shri Kashi Vishwanath Temple on Wednesday, November 4, 2015

ऋग्वेद, मंडल १०, नासदीय सूक्त


Apauruṣeyā part Rigveda contain Mandala 10 contains Nasadiya Sukta.The #Nasadiya_Sukta (after the incipit ná ásat "not...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Wednesday, November 4, 2015

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

दर्शन गंगोलीहाट की हट कालिका माता


#शाङ्कर_दर्शनम्जो अज्ञानी (तथाकथित फेस्बुकिये #स्वरूपानन्दी_चेले ) ये कहते हैं कि तुमको किसने हक़ दिया #श्री_आद्य_शङ्कर...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Tuesday, November 3, 2015

ब्रह्म-महूर्त भस्मारती दर्शन श्री महाकालेश्वर


प्रभात दर्शन सोमनाथ


दर्शन काल भैरव


Darśana #kaal Bhairava

Posted by Shri Kashi Vishwanath Temple on Monday, November 2, 2015

दर्शन भगवान अर्धनारीश्वर


Darśana Bhagvan Ardhanarishvara

Posted by Shree Mahakaleshwar Temple Ujjain on Monday, November 2, 2015

दर्शन कैलाश पर्वत के साथ नंदी पर्वत


सोमवार, 2 नवंबर 2015

Darsana Mahakaleshwar


Darsana Somnath


Darsana Gokarna


रविवार, 1 नवंबर 2015

‘सौन्दर्यलहरी’


सौन्दर्यलहरी  श्री  आद्य शंकराचार्य द्वारा  विरचित अनुपम रचना  है, अपने  बाल्यकाल में  भगवान् शंकर ने  इसे  रचा था ।  श्री गौड़पादाचार्य  जी  द्वारा  कथित  सुभगोदय  का  ही  प्राकट्य यह  कादि, हादि  विद्याओं  की  सारसर्वस्वविभूषिता  सौंदर्य लहरी  है  , सुभगोदय  का  अभिप्राय  है सुभगा अथवा  सौभाग्य का  उदय   जिसका  आतंरिक  अभिप्राय  कुण्डलिनी जागरण  से  भी  समझा  जा   सकता  है ।   समयाचारस्वरूपा सात्विक तन्त्ररचना  होने  से  यह  जितनी   विस्तृत रहस्यपरा  है,   उतनी   ही  उपासक  की  संसार भय  से  रक्षा (त्राण)  करने  वाली  भी  है , भगवान् शंकर द्वारा  कथित  एवं   भगवती त्रिपुरा सुन्दरी द्वारा  अनुमोदित  (आगमात्मिका) होने  से अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) की उपायस्वरूपा  है । हालांकि  माँ ललिताम्बा की  उपासना  के  सम्बन्ध  में  सामान्य  धारणा  यह  प्रचलित  है  कि  श्री विद्या सम्प्रदाय के सबल रहने  से    शक्ति उपासना वस्तुतः दक्षिण भारत  में  ही  है  , हालांकि     स्थूल दृष्टि  से  उत्तर भारत  में  श्रीविद्या का  अभाव  सा  दिखलाई  देता  है  इसलिए ये  कह  दिया  जाता है कि   राजराजेश्वरी  माँ त्रिपुरा सुन्दरी की  उपासना  क्षीणप्राय है  तथा  दक्षिण  में  ही  इसका  विस्तार   दृष्टिगोचर  होता  है ,  किन्तु  ऐसा  भी  नहीं  है , क्योंकि  उत्तर  भारत  में  जो माँ राजराजेश्वरी त्रिपुरा सुन्दरी  की  उपासना   है तथा  माता  भगवती  की  प्रत्यक्ष  महिमा  प्रकाशित है  ,   वह दक्षिण  तो  क्या  ,   समस्त  विश्व  में  कहीं  नहीं  ,  यह मर्म  यदि   हम जैसे  अधिकारी    जानते  हैं तो  ये  हमारा  सौभाग्य है  ।  अस्तु ,
१०३ श्लोकों  में  प्रवाहित   यह  शंकर भावधारा  शिखरिणी छन्द में  है ,   जिसमें यगण, मगण, नगण, सगण, भगण और लघु तथा गुरु के क्रम से प्रत्येक चरण में वर्ण रखे जाते हैं और  ६  तथा ११  वर्णों के बाद यति होती है,  जैसा  कि  इसके  लक्षण  में  स्पष्ट  किया  गया  है  :- रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी ।। (- वृत्तरत्नाकर ३/९०) ।।
सौन्दर्यलहरी  स्वरूपा   माँ  त्रिपुरा सुन्दरी के इस अचिन्त्य  माहात्म्य को  जीवन में अभिन्नभावेन  उतारने  करने से  तो  क्या  कहना  वरन्  इसके पाठ करने से  या  इस के प्रति  श्रद्धा  अभिव्यक्त  करने  मात्र  से  भी  समस्त पुण्य फलीभूत हो  जाते  हैं ।। इत्यो३म् शम् ।।
।।  अथ सौन्दर्यलहरी  ।।

आनन्दलहरी (१-४०)
            ।ऽ       ऽऽ     ऽऽ     ।।    ।।।     ऽऽ     ।।।ऽ             
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ।। १।।

तनीयांसं पांसुं तव चरणपङ्केरुहभवं
विरिञ्चिस्सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् ।
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां
हरस्सङ्क्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलनविधिम् ।। २।।

अविद्यानामन्त-स्तिमिर-मिहिरद्वीपनगरी
जडानां चैतन्य-स्तबक-मकरन्द-स्रुतिझरी ।
दरिद्राणां चिन्तामणिगुणनिका जन्मजलधौ
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु-वराहस्य भवति ।। ३।।

त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया ।
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ।। ४।।

हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत् ।
स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ।। ५।।

धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः
वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनरथः ।
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपाम्
अपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते ।। ६।।

क्वणत्काञ्चीदामा करिकलभकुम्भस्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना ।
धनुर्बाणान् पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः
पुरस्तादास्तां नः पुरमथितुराहोपुरुषिका ।। ७।।

सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटीपरिवृते
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे ।
शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां
भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्दलहरीम् ।। ८।।

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि ।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ।। ९।।

सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः ।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ।। १०।।

चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि
प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः ।
चतुश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय-
त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः ।। ११।।

त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं
कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभृतयः ।
यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा
तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् ।। १२।।

नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं
तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः ।
गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया
हठात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः ।। १३।।

क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले ।
दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ।। १४।।

शरज्ज्योत्स्नाशुद्धां शशियुतजटाजूटमकुटां
वरत्रासत्राणस्फटिकघटिकापुस्तककराम् ।
सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां संन्निदधते
मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणाः भणितयः ।। १५।। 

कवीन्द्राणां चेतःकमलवनबालातपरुचिं
भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणामेव भवतीम् ।
विरिञ्चिप्रेयस्यास्तरुणतरशृङ्गारलहरी-
गभीराभिर्वाग्भिर्विदधति सतां रञ्जनममी ।। १६।।

सवित्रीभिर्वाचां शशिमणिशिलाभङ्गरुचिभिः
वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि सञ्चिन्तयति यः ।
स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिरुचिभिः
वचोभिर्वाग्देवीवदनकमलामोदमधुरैः ।। १७।।

तनुच्छायाभिस्ते तरुणतरणिश्रीसरणिभिः
दिवं सर्वामुर्वीमरुणिमनि मग्नां स्मरति यः ।
भवन्त्यस्य त्रस्यद्वनहरिणशालीननयनाः
सहोर्वश्या वश्याः कति कति न गीर्वाणगणिकाः ।। १८।।

मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो
हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् ।
स सद्यः सङ्क्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु
त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवीन्दुस्तनयुगाम् ।। १९।।

किरन्तीमङ्गेभ्यः किरणनिकुरम्बामृतरसं
हृदि त्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिव यः ।
स सर्पाणां दर्पं शमयति शकुन्ताधिप इव
ज्वरप्लुष्टान् दृष्ट्या सुखयति सुधाधारसिरया ।। २०।।

तटिल्लेखातन्वीं तपनशशिवैश्वानरमयीं
निषण्णां षण्णामप्युपरि कमलानां तव कलाम् ।
महापद्माटव्यां मृदितमलमायेन मनसा
महान्तः पश्यन्तो दधति परमाह्लादलहरीम् ।। २१।।

भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणा-
मिति स्तोतुं वाञ्छन् कथयति भवानि त्वमिति यः ।
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निजसायुज्यपदवीं
मुकुन्दब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुटनीराजितपदाम् ।। २२।।

त्वया हृत्वा वामं वपुरपरितृप्तेन मनसा
शरीरार्धं शम्भोरपरमपि शङ्के हृतमभूत् ।
यदेतत्त्वद्रूपं सकलमरुणाभं त्रिनयनं
कुचाभ्यामानम्रं कुटिलशशिचूडालमकुटम् ।। २३।।

जगत्सूते धाता हरिरवति रुद्रः क्षपयते
तिरस्कुर्वन्नेतत्स्वमपि वपुरीशस्तिरयति ।
सदापूर्वः सर्वं तदिदमनुगृह्णाति च शिव-
स्तवाज्ञामालम्ब्य क्षणचलितयोर्भ्रूलतिकयोः ।। २४।।

त्रयाणां देवानां त्रिगुणजनितानां तव शिवे
भवेत् पूजा पूजा तव चरणयोर्या विरचिता ।
तथा हि त्वत्पादोद्वहनमणिपीठस्य निकटे
स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलितकरोत्तंसमकुटाः ।। २५।।

विरिञ्चिः पञ्चत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं
विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् ।
वितन्द्री माहेन्द्री विततिरपि संमीलितदृशा
महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ ।। २६।।

जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना
गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्याहुतिविधिः ।
प्रणामस्संवेशस्सुखमखिलमात्मार्पणदृशा
सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ।। २७।।

सुधामप्यास्वाद्य प्रतिभयजरामृत्युहरिणीं
विपद्यन्ते विश्वे विधिशतमखाद्या दिविषदः ।
करालं यत्क्ष्वेलं कबलितवतः कालकलना
न शम्भोस्तन्मूलं तव जननि ताटङ्कमहिमा ।। २८।।

किरीटं वैरिञ्चं परिहर पुरः कैटभभिदः
कठोरे कोटीरे स्खलसि जहि जम्भारिमुकुटम् ।
प्रणम्रेष्वेतेषु प्रसभमुपयातस्य भवनं
भवस्याभ्युत्थाने तव परिजनोक्तिर्विजयते ।। २९।।

स्वदेहोद्भूताभिर्घृणिभिरणिमाद्याभिरभितो
निषेव्ये नित्ये त्वामहमिति सदा भावयति यः ।
किमाश्चर्यं तस्य त्रिनयनसमृद्धिं तृणयतो
महासंवर्ताग्निर्विरचयति निराजनविधिम् ।। ३०।।

चतुष्षष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसन्धाय भुवनं
स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रैः पशुपतिः ।
पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थैकघटना-
स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ।। ३१।।

शिवः शक्तिः कामः क्षितिरथ रविः शीतकिरणः
स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः ।
अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिता
भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ।। ३२।।

स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितयमिदमादौ तव मनो-
र्निधायैके नित्ये निरवधिमहाभोगरसिकाः ।
भजन्ति त्वां चिन्तामणिगुननिबद्धाक्षवलयाः
शिवाग्नौ जुह्वन्तः सुरभिघृतधाराहुतिशतैः ।। ३३।।

शरीरं त्वं शम्भोः शशिमिहिरवक्षोरुहयुगं
तवात्मानं मन्ये भगवति नवात्मानमनघम् ।
अतश्शेषश्शेषीत्ययमुभयसाधारणतया
स्थितः सम्बन्धो वां समरसपरानन्दपरयोः ।। ३४।।

मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि
त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ।
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा
चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ।। ३५।।

तवाज्ञाचक्रस्थं तपनशशिकोटिद्युतिधरं
परं शम्भुं वन्दे परिमिलितपार्श्वं परचिता ।
यमाराध्यन् भक्त्या रविशशिशुचीनामविषये
निरालोकेऽलोके निवसति हि भालोकभवने ।। ३६।।

विशुद्धौ ते शुद्धस्फटिकविशदं व्योमजनकं
शिवं सेवे देवीमपि शिवसमानव्यवसिताम् ।
ययोः कान्त्या यान्त्याः शशिकिरणसारूप्यसरणे-
विधूतान्तर्ध्वान्ता विलसति चकोरीव जगती ।। ३७।।

समुन्मीलत् संवित् कमलमकरन्दैकरसिकं
भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् ।
यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति-
र्यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ।। ३८।।

तव स्वाधिष्ठाने हुतवहमधिष्ठाय निरतं
तमीडे संवर्तं जननि महतीं तां च समयाम् ।
यदालोके लोकान् दहति महति क्रोधकलिते
दयार्द्रा या दृष्टिः शिशिरमुपचारं रचयति ।। ३९।।

तटित्त्वन्तं शक्त्या तिमिरपरिपन्थिफुरणया
स्फुरन्नानारत्नाभरणपरिणद्धेन्द्रधनुषम् ।
तव श्यामं मेघं कमपि मणिपूरैकशरणं
निषेवे वर्षन्तं हरमिहिरतप्तं त्रिभुवनम् ।। ४०।।

तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया
नवात्मानं मन्ये नवरसमहाताण्डवनटम् ।
उभाभ्यामेताभ्यामुदयविधिमुद्दिश्य दयया
सनाथाभ्यां जज्ञे जनकजननीमज्जगदिदम् ।। ४१।।

सौन्दर्यलहरी

गतैर्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सान्द्रघटितं
किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीर्तयति यः ।
स नीडेयच्छायाच्छुरणशबलं चन्द्रशकलं
धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नाति धिषणाम् ।। ४२।।

धुनोतु ध्वान्तं नस्तुलितदलितेन्दीवरवनं
घनस्निग्धश्लक्ष्णं चिकुरनिकुरुम्बं तव शिवे ।
यदीयं सौरभ्यं सहजमुपलब्धुं सुमनसो
वसन्त्यस्मिन् मन्ये वलमथनवाटीविटपिनाम् ।। ४३।।

तनोतु क्षेमं नस्तव वदनसौन्दर्यलहरी-
परीवाहस्रोतःसरणिरिव सीमन्तसरणिः ।
वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरीभारतिमिर-
द्विषां बृन्दैर्बन्दीकृतमिव नवीनार्ककिरणम् ।। ४४।।

अरालैः स्वाभाव्यादलिकलभसश्रीभिरलकैः
परीतं ते वक्त्रं परिहसति पङ्केरुहरुचिम् ।
दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचिकिञ्जल्करुचिरे
सुगन्धौ माद्यन्ति स्मरदहनचक्षुर्मधुलिहः ।। ४५।।

ललाटं लावण्यद्युतिविमलमाभाति तव य-
द्द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चन्द्रशकलम् ।
विपर्यासन्यासादुभयमपि सम्भूय च मिथः
सुधालेपस्यूतिः परिणमति राकाहिमकरः ।। ४६।।

भ्रुवौ भुग्ने किञ्चिद्भुवनभयभङ्गव्यसनिनि
त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकररुचिभ्यां धृतगुणम् ।
धनुर्मन्ये सव्येतरकरगृहीतं रतिपतेः
प्रकोष्ठे मुष्टौ च स्थगयति निगूढान्तरमुमे ।। ४७।।

अहः सूते सव्यं तव नयनमर्कात्मकतया
त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया ।
तृतीया ते दृष्टिर्दरदलितहेमाम्बुजरुचिः
समाधत्ते सन्ध्यां दिवसनिशयोरन्तरचरीम् ।। ४८।।

विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः
कृपाधाराधारा किमपि मधुराभोगवतिका ।
अवन्ती दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया
ध्रुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते ।। ४९।।

कवीनां सन्दर्भस्तबकमकरन्दैकरसिकं
कटाक्षव्याक्षेपभ्रमरकलभौ कर्णयुगलम् ।
अमुञ्चन्तौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वादतरला-
वसूयासंसर्गादलिकनयनं किञ्चिदरुणम् ।। ५०।।

शिवे शृङ्गारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा
सरोषा गङ्गायां गिरिशचरिते विस्मयवती ।
हराहिभ्यो भीता सरसिरुहसौभाग्यजयिनी
सखीषु स्मेरा ते मयि जननी दृष्टिः सकरुणा ।। ५१।।

गते कर्णाभ्यर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती
पुरां भेत्तुश्चित्तप्रशमरसविद्रावणफले ।
इमे नेत्रे गोत्राधरपतिकुलोत्तंसकलिके
तवाकर्णाकृष्टस्मरशरविलासं कलयतः ।। ५२।।

विभक्तत्रैवर्ण्यं व्यतिकरितलीलाञ्जनतया
विभाति त्वन्नेत्रत्रितयमिदमीशानदयिते ।
पुनः स्रष्टुं देवान् द्रुहिणहरिरुद्रानुपरतान्
रजः सत्त्वं बिभ्रत्तम इति गुणानां त्रयमिव ।। ५३।।

पवित्रीकर्तुं नः पशुपतिपराधीनहृदये
दयामित्रैर्नेत्रैररुणधवलश्यामरुचिभिः ।
नदः शोणो गङ्गा तपनतनयेति ध्रुवममुं
त्रयाणां तीर्थानामुपनयसि सम्भेदमनघम् ।। ५४।।

निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती
तवेत्याहुः सन्तो धरणिधरराजन्यतनये ।
त्वदुन्मेषाज्जातं जगदिदमशेषं प्रलयतः
परित्रातुं शङ्के परिहृतनिमेषास्तव दृशः ।। ५५।।

तवापर्णे कर्णेजपनयनपैशुन्यचकिता
निलीयन्ते तोये नियतमनिमेषाः शफरिकाः ।
इयं च श्रीर्बद्धच्छदपुटकवाटं कुवलयम्
जहाति प्रत्यूषे निशि च विघटय्य प्रविशति ।। ५६।।

दृशा द्राघीयस्या दरदलितनीलोत्पलरुचा
दवीयांसं दीनं स्नपय कृपया मामपि शिवे ।
अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता
वने वा हर्म्ये वा समकरनिपातो हिमकरः ।। ५७।।

अरालं ते पालीयुगलमगराजन्यतनये
न केषामाधत्ते कुसुमशरकोदण्डकुतुकम् ।
तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथमुल्लङ्घ्य विलस-
न्नपाङ्गव्यासङ्गो दिशति शरसन्धानधिषणाम् ।। ५८।।

स्फुरद्गण्डाभोगप्रतिफलितताटङ्कयुगलं
चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथम् ।
यमारुह्य द्रुह्यत्यवनिरथमर्केन्दुचरणं
महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते ।। ५९।।

सरस्वत्याः सूक्तीरमृतलहरीकौशलहरीः
पिबन्त्याः शर्वाणि श्रवणचुलुकाभ्यामविरलम् ।
चमत्कारश्लाघाचलितशिरसः कुण्डलगणो
झणत्कारैस्तारैः प्रतिवचनमाचष्ट इव ते ।। ६०।।

असौ नासावंशस्तुहिनगिरिवंशध्वजपटि
त्वदीयो नेदीयः फलतु फलमस्माकमुचितम् ।
वहन्नन्तर्मुक्ताः शिशिरतरनिश्वासगलितं
समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः ।। ६१।।

प्रकृत्या रक्तायास्तव सुदति दन्तच्छदरुचेः
प्रवक्ष्ये सादृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता ।
न बिम्बं तद्बिम्बप्रतिफलनरागादरुणितं
तुलामध्यारोढुं कथमिव विलज्जेत कलया ।। ६२।।

स्मितज्योत्स्नाजालं तव वदनचन्द्रस्य पिबतां
चकोराणामासीदतिरसतया चञ्चुजडिमा ।
अतस्ते शीतांशोरमृतलहरीमम्लरुचयः
पिबन्ति स्वच्छन्दं निशि निशि भृशं काञ्जिकधिया ।। ६३।।

अविश्रान्तं पत्युर्गुणगणकथाम्रेडनजपा
जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा ।
यदग्रासीनायाः स्फटिकदृषदच्छच्छविमयी
सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्यवपुषा ।। ६४।।

रणे जित्वा दैत्यानपहृतशिरस्त्रैः कवचिभिर्-
निवृत्तैश्चण्डांशत्रिपुरहरनिर्माल्यविमुखैः ।
विशाखेन्द्रोपेन्द्रैः शशिविशदकर्पूरशकला
विलीयन्ते मातस्तव वदनताम्बूलकबलाः ।। ६५।।

विपञ्च्या गायन्ती विविधमपदानं पशुपतेः
त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने ।
तदीयैर्माधुर्यैरपलपिततन्त्रीकलरवां
निजां वीणां वाणी निचुलयति चोलेन निभृतम् ।। ६६।।

कराग्रेण स्पृष्टं तुहिनगिरिणा वत्सलतया
गिरीशेनोदस्तं मुहुरधरपानाकुलतया ।
करग्राह्यं शम्भोर्मुखमुकुरवृन्तं गिरिसुते
कथङ्कारं ब्रूमस्तव चिबुकमौपम्यरहितम् ।। ६७।।

भुजाश्लेषान् नित्यं पुरदमयितुः कण्टकवती
तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनालश्रियमियम् ।
स्वतः श्वेता कालागुरुबहुलजम्बालमलिना
मृणालीलालित्यम् वहति यदधो हारलतिका ।। ६८।।

गले रेखास्तिस्रो गतिगमकगीतैकनिपुणे
विवाहव्यानद्धप्रगुणगुणसङ्ख्याप्रतिभुवः ।
विराजन्ते नानाविधमधुररागाकरभुवां
त्रयाणां ग्रामाणां स्थितिनियमसीमान इव ते ।। ६९।।

मृणालीमृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां
चतुर्भिः सौन्दर्यं सरसिजभवः स्तौति वदनैः ।
नखेभ्यः सन्त्रस्यन् प्रथममथनादन्धकरिपो-
श्चतुर्णां शीर्षाणां सममभयहस्तार्पणधिया ।। ७०।।

नखानामुद्द्योतैर्नवनलिनरागं विहसतां
कराणां ते कान्तिं कथय कथयामः कथमुमे ।
कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हन्त कमलं
यदि क्रीडल्लक्ष्मीचरणतललाक्षारसछणम् ।। ७१।।

समं देवि स्कन्दद्विपवदनपीतं स्तनयुगं
तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुतमुखम् ।
यदालोक्याशङ्काकुलितहृदयो हासजनकः
स्वकुम्भौ हेरम्बः परिमृशति हस्तेन झडिति ।। ७२।।

अमू ते वक्षोजावमृतरसमाणिक्यकुतुपौ
न सन्देहस्पन्दो नगपतिपताके मनसि नः ।
पिबन्तौ तौ यस्मादविदितवधूसङ्गरसिकौ
कुमारावद्यापि द्विरदवदनक्रौञ्चदलनौ ।। ७३।।

वहत्यम्ब स्तम्बेरमदनुजकुम्भप्रकृतिभिः
समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम् ।
कुचाभोगो बिम्बाधररुचिभिरन्तः शबलितां
प्रतापव्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते ।। ७४।।

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः
पयःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव ।
दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत्
कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता ।। ७५।।

हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा
गभीरे ते नाभीसरसि कृतसङ्गो मनसिजः ।
समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका
जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति ।। ७६।।

यदेतत् कालिन्दीतनुतरतरङ्गाकृति शिवे
कृशे मध्ये किञ्चिज्जननि तव यद्भाति सुधियाम् ।
विमर्दादन्योऽन्यं कुचकलशयोरन्तरगतं
तनूभूतं व्योम प्रविशदिव नाभिं कुहरिणीम् ।। ७७।।

स्थिरो गङ्गावर्तः स्तनमुकुलरोमावलिलता-
कलावालं कुण्डं कुसुमशरतेजोहुतभुजः ।
रतेर्लीलागारं किमपि तव नाभिर्गिरिसुते
बिलद्वारं सिद्धेर्गिरिशनयनानां विजयते ।। ७८।।

निसर्गक्षीणस्य स्तनतटभरेण क्लमजुषो
नमन्मूर्तेर्नारीतिलक शनकैस्त्रुट्यत इव ।
चिरं ते मध्यस्य त्रुटिततटिनीतीरतरुणा
समावस्थास्थेम्नो भवतु कुशलं शैलतनये ।। ७९।।

कुचौ सद्यःस्विद्यत्तटघटितकूर्पासभिदुरौ
कषन्तौ दोर्मूले कनककलशाभौ कलयता ।
तव त्रातुं भङ्गादलमिति वलग्नं तनुभुवा
त्रिधा नद्धं देवि त्रिवलि लवलीवल्लिभिरिव ।। ८०।।

गुरुत्वं विस्तारं क्षितिधरपतिः पार्वति निजा-
न्नितम्बादाच्छिद्य त्वयि हरणरूपेण निदधे ।
अतस्ते विस्तीर्णो गुरुरयमशेषां वसुमतीं
नितम्बप्राग्भारः स्थगयति लघुत्वं नयति च ।। ८१।।

करीन्द्राणां शुण्डान् कनककदलीकाण्डपटली-
मुभाभ्यामूरुभ्यामुभयमपि निर्जित्य भवती ।
सुवृत्ताभ्यां पत्युः प्रणतिकठिनाभ्यां गिरिसुते
विधिज्ञ्ये जानुभ्यां विबुधकरिकुम्भद्वयमसि ।। ८२।।

पराजेतुं रुद्रं द्विगुणशरगर्भौ गिरिसुते
निषङ्गौ जङ्घे ते विषमविशिखो बाढमकृत ।
यदग्रे दृश्यन्ते दशशरफलाः पादयुगली-
नखाग्रच्छद्मानः सुरमकुटशाणैकनिशिताः ।। ८३।।

श्रुतीनां मूर्धानो दधति तव यौ शेखरतया
ममाप्येतौ मातः शिरसि दयया धेहि चरणौ ।
ययोः पाद्यं पाथः पशुपतिजटाजूटतटिनी
ययोर्लाक्षालक्ष्मीररुणहरिचूडामणिरुचिः ।। ८४।।

नमोवाकं ब्रूमो नयनरमणीयाय पदयो-
स्तवास्मै द्वन्द्वाय स्फुटरुचिरसालक्तकवते ।
असूयत्यत्यन्तं यदभिहननाय स्पृहयते
पशूनामीशानः प्रमदवनकङ्केलितरवे ।। ८५।।

मृषा कृत्वा गोत्रस्खलनमथ वैलक्ष्यनमितं
ललाटे भर्तारं चरणकमले ताडयति ते ।
चिरादन्तःशल्यं दहनकृतमुन्मूलितवता
तुलाकोटिक्वाणैः किलिकिलितमीशानरिपुणा ।। ८६।।

हिमानीहन्तव्यं हिमगिरिनिवासैकचतुरौ
निशायां निद्राणं निशि चरमभागे च विशदौ ।
वरं लक्ष्मीपात्रं श्रियमतिसृजन्तौ समयिनां
सरोजं त्वत्पादौ जननि जयतश्चित्रमिह किम् ।। ८७।।

पदं ते कीर्तीनां प्रपदमपदं देवि विपदां
कथं नीतं सद्भिः कठिनकमठीकर्परतुलाम् ।
कथं वा बाहुभ्यामुपयमनकाले पुरभिदा
यदादाय न्यस्तं दृषदि दयमानेन मनसा ।। ८८।।

नखैर्नाकस्त्रीणां करकमलसङ्कोचशशिभि-
स्तरूणां दिव्यानां हसत इव ते चण्डि चरणौ ।
फलानि स्वःस्थेभ्यः किसलयकराग्रेण ददतां
दरिद्रेभ्यो भद्रां श्रियमनिशमह्नाय ददतौ ।। ८९।।

ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिशमाशानुसदृशी-
ममन्दं सौन्दर्यप्रकरमकरन्दम् विकिरति ।
तवास्मिन् मन्दारस्तबकसुभगे यातु चरणे
निमज्जन्मज्जीवः करणचरणः षट्चरणताम् ।। ९०।।

पदन्यासक्रीडापरिचयमिवारब्धुमनसः
स्खलन्तस्ते खेलं भवनकलहंसा न जहति ।
अतस्तेषां शिक्षां सुभगमणिमञ्जीररणित-
च्छलादाचक्षाणं चरणकमलं चारुचरिते ।। ९१।।

गतास्ते मञ्चत्वं द्रुहिणहरिरुद्रेश्वरभृतः
शिवः स्वच्छच्छायाघटितकपटप्रच्छदपटः ।
त्वदीयानां भासां प्रतिफलनरागारुणतया
शरीरी शृङ्गारो रस इव दृशां दोग्धि कुतुकम् ।। ९२।।

अराला केशेषु प्रकृतिसरला मन्दहसिते
शिरीषाभा चित्ते दृषदुपलशोभा कुचतटे ।
भृशं तन्वी मध्ये पृथुरुरसिजारोहविषये
जगत्त्रातुं शम्भोर्जयति करुणा काचिदरुणा ।। ९३।।

कलङ्कः कस्तूरी रजनिकरबिम्बं जलमयं
कलाभिः कर्पूरैर्मरकतकरण्डं निबिडितम् ।
अतस्त्वद्भोगेन प्रतिदिनमिदं रिक्तकुहरं
विधिर्भूयो भूयो निबिडयति नूनं तव कृते ।। ९४।।

पुरारातेरन्तःपुरमसि ततस्त्वच्चरणयोः
सपर्यामर्यादा तरलकरणानामसुलभा ।
तथा ह्येते नीताः शतमखमुखाः सिद्धिमतुलां
तव द्वारोपान्तस्थितिभिरणिमाद्याभिरमराः ।। ९५।।

कलत्रं वैधात्रं कतिकति भजन्ते न कवयः
श्रियो देव्याः को वा न भवति पतिः कैरपि धनैः ।
महादेवं हित्वा तव सति सतीनामचरमे
कुचाभ्यामासङ्गः कुरवकतरोरप्यसुलभः ।। ९६।।

गिरामाहुर्देवीं द्रुहिणगृहिणीमागमविदो
हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरीमद्रितनयाम् ।
तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा
महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि ।। ९७।।

कदा काले मातः कथय कलितालक्तकरसं
पिबेयं विद्यार्थी तव चरणनिर्णेजनजलम् ।
प्रकृत्या मूकानामपि च कविताकारणतया
कदा धत्ते वाणीमुखकमलताम्बूलरसताम् ।। ९८।।

सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते
रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा ।
चिरं जीवन्नेव क्षपितपशुपाशव्यतिकरः
परानन्दाभिख्यम् रसयति रसं त्वद्भजनवान् ।। ९९।।

प्रदीपज्वालाभिर्दिवसकरनीराजनविधिः
सुधासूतेश्चन्द्रोपलजललवैरर्घ्यरचना ।
स्वकीयैरम्भोभिः सलिलनिधिसौहित्यकरणं
त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् ।। १००।।

समानीतः पद्भ्यां मणिमुकुरतामम्बरमणि-
र्भयादन्तःस्तिमितकिरणश्रेणिमसृणः ।
दधाति त्वद्वक्त्रम्प्रतिफलनमश्रान्तविकचं
निरातङ्कं चन्द्रान्निजहृदयपङ्केरुहमिव ।। १०१।।

समुद्भूतस्थूलस्तनभरमुरश्चारु हसितं
कटाक्षे कन्दर्पः कतिचन कदम्बद्युति वपुः ।
हरस्य त्वद्भ्रान्तिं मनसि जनयाम् स्म विमला
भवत्या ये भक्ताः परिणतिरमीषामियमुमे ।। १०२।। 

निधे नित्यस्मेरे निरवधिगुणे नीतिनिपुणे
निराघातज्ञाने नियमपरचित्तैकनिलये ।
नियत्या निर्मुक्ते निखिलनिगमान्तस्तुतिपदे
निरातङ्के नित्ये निगमय ममापि स्तुतिमिमाम् ।। १०३।।

।। इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ सौन्दर्यलहरी सम्पूर्णा ।।

।। ॐ तत्सत् ।।
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !

गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
।। जय श्री राम ।।

सायंकाल शृंगार दर्शन श्री सोमनाथ महादेव


दो पीठ पर एक शंकराचार्य


स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा भी साक्षात् अवतरित हो जाएँ , तो वे भी दो पीठ पर एक शंकराचार्य का अभिषिक्त होना सही सिद्ध नहीं कर ...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Sunday, November 1, 2015

स्वामी रामसुखदास जी की विद्वत्ता

गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता के अर्थ में बहुत दोष हैं , अनेक स्थलों पर ये अर्थ श्लोकों का सही अभिप्राय प्रकट नहीं करते | मनगढ़ंत पद्धति से अर्थ किये जाने से गीताप्रेस की गीता में कोई एकरूपता नहीं है | ........बनियों ने सारा गुड गोबर कर रखा है |
|| जय श्रीराम ||

स्वामी रामसुखदास जी की विद्वत्ता -_____________________श्लोक के अभिप्राय में मनगढ़ंत व्याख्याएं करना तो कोई स्वामी राम...

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, October 31, 2015

परब्रह्म परमात्मा का आदेश


परब्रह्म परमात्मा का आदेश -हे मनुष्यों ! तुम देवताओं को दो , देवता तुमको देंगे , इस प्रकार वे देवता और तुम मनुष्य - दोनों क्रमशः मोक्ष को पा लो !( -गीता ३/११)|| जयश्रीराम |

Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, October 31, 2015

ब्लॉग आर्काइव