आर्य मुदित - प्रलाप - भंजन ---------->
__________________
१- "अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की एक ऐसी अद्भुत चिठ्ठी ।
जिसने कर डाली थी काशी से दयानन्द की पूरी छुट्टी ।।
भावार्थ - परम अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की चिठ्ठी ऐसी अद्भुत थी कि काशी में बिना अपने मन के अनुकूल निर्णय के एक पग भी काशी से न बढाने का हो -हल्ला मचाने वाले मतवाले दयानंद की काशी से छुट्टी कर डाली , पूरी छुट्टी शब्द का अभिप्राय यह है कि यद्यपि काशी के वेदज्ञ पंडितों ने दयानंद की वैचारिक छुट्टी कर दी थी तथापि व्यावहारिक धरातल पर केजरीवाल की भांति काशी में अनर्गल उत्पात मचाने वाले दयानंद की वृथा हो -हुंकारों से सभ्य समाज व्यथित हो रहा था , काशी नरेश एक सन्यासी होने के नाते दयानंद को कुछ कर नहीं सकते थे , ऐसे में काशी में दयानंद के
इस उत्पात को काशीपुरेश्वर सचल विश्वनाथ योगीराज ने स्वधाम में शान्ति बनाए रखने हेतु पूर्णतः समाप्त कर दिया !
२- दयानंद स्वयं न पचा पाया था तो बेचारे अंध - चेलों को पचेगी कहाँ ?
पिला दी अपने अवधूत बाबा ने दयानंद को ऐसी घुट्टी ।।
भावार्थ - स्वयं स्वामी दयानंद इस चिठ्ठी के ज्वर से जर्जरित होकर काशी से भाग खड़े हुए थे , ऐसे में उनके आधुनिक अन्धपरम्परा न्याय का सकुशल निर्वहन करने वाले समाजी चेलों को उसका वर्णन दग्ध करे तो आश्चर्य कैसा ? भंगोटा पिलाने में मशहूर काशीपति विश्वनाथ ने भंगेड़ी दयानंद (स्वामी दयानंद के भांग , हुक्का चिलम आदि पीने का वर्णन स्वयं उनकी जीवनी में है इसके लिए आप यू ट्यूब पर यह लिंक देखें -
https://www.youtube.com/watch?v=uWCPbDV2lUU )
को ऐसी घुट्टी पिलाई कि बेचारे दयानंद के दुरभिमान का स्वास्थ्य बिगड़ गया !
३- वाह हे योगी आपका घोटा ! जिसने उलट दिया दयानंद का लोटा ।
चिठ्ठी से आपकी दयानंद खोटा । भागा भी यूं , क्या खडाऊं क्या सोटा ।। _/\_
भावार्थ - हे योगेश्वर ! आपके ऐसे अद्भुत घोटे का क्या कहना ! जिसने मतवाले दयानंद का भी लोटा पलट दिया अर्थात् आपके लोटे का घोटा पीने के उपरांत दयानंद अपने लोटे को बिसर गया , यानी अपने आपको भूलकर बस आपका ही ध्यान उसके मनो मस्तिष्क पर चढ़ गया !!! फिर तो जहां देखे , सर्वत्र दयानंद को आप ही आप दिखाई देने लगे ! ! ऐसी मनोविदालिता में खोटे स्वभाव वाला वह दयानंद काशी से ऐसे भागा कि अपना सोटा और खडाऊं तक का भी ध्यान न रहा अर्थात् सर पर चप्पल रखकर औंधे भागने की कहावत चरितार्थ कर गया !
..बम बम भोले !! हर हर शंकर !!
........ जय योगीराज !!! हर हर महादेव !
_________________________
अथ आर्यमुदित -प्रलाप- भंजनम् ----------->
____________________
1 .श्री अजय सिन्ह द्वारा तैलंग स्वामी पर लिखित एक लेख 2010 में नागपुर की राष्ट्रधर्म मगज़ीन में छपा जिसमें यह नई हदीस उद्घाटित की गयी की जब स्वामीजी ने बनारस में शास्त्रार्थ किया उसके बाद तैलंग स्वामीजी ने उन्हंज़ एक पत्र भेजा जिसे पढकर वे वाराणसी छोड़ गये और उस पत्र में लिखा मात्र सिर्फ दयानंद जी व तैलंग जी को ही पता था।
प्रलाप - भंजन ----------->यह आपका "नई हदीस" कहना आपकी मनोव्यथामात्र है ।
2. इस लेख के लेखक अजय सिन्ह ने तैलंग स्वामी जी के लिए तो जी शब्द प्रयुक्त किया पर महान धर्मउद्धारक स्वामी दयानंद जी के लिए जी शब्द प्रयुक्त नहीं किया, न ही इस कथा का कोई संदर्भ ही बताया, इसीसे इनकी मंशा का अनुमान लगया जा सकता है।
प्रलाप - भंजन -----------> आपने लेख के लिए शुरुआत में ही " नयी हदीस " शब्द प्रयोग किया है , स्वयं आपकी मंशा स्पष्ट हो गयी है । और जो व्यक्ति भाग गया हो उसके लिए जी क्या लगाना ? जिसने भगाया उसके तेज को आदर देना सहज है । प्रायः शिष्यों की श्रवण परम्परा से ही सुनी आयी बहुत यथार्थता लोक में प्रमाणरूप से कथित हो जाती है । इस प्रकार के एक सामान्य उदाहरण के लिए देखिये धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के अद्भुत तेज के विषय में राजीव दीक्षित का यह वक्तव्य -
https://www.youtube.com/watch?v=x4HMJ0KbOIY
स्वामी तैलंग स्वामी जी की जीवनी में (यथा - "भारत के महान् योगी" उक्त पत्रिका जिसका आप स्वयं वर्णन कर रहे हैं इत्यादि ) से जुडी ये घटनाएं यदि आपको स्वीकृत नहीं होती हैं तो ये आपकी अपनी सोच है , इस पर हम क्या करें ? आपको प्रमाण नहीं लगती तो इसमें कौन क्या कर सकता है ? इतिहास तो इति ह एवं आसीत् (ऐसा हुआ था )-ऐसा वृद्धव्यवाहार से सुनकर ही प्रायः ज्ञात होता है । आपको इसमें श्रद्धा नहीं तो हम क्या करें ? आप अपना विधवा विलाप अपने ही आर्य उपनाम धारी वेद के स्वघोषित ठेकेदारों को सुनाइये ।
3. वह तथाकथित पत्र किस वर्ष स्वामीजी को तैलंग जी द्वारा भेजा गया यह भी उल्लिखित नहीं है, जबकि स्वामीजी जीवनकाल में बनारस 7 बार गये.
प्रलाप - भंजन -----------> यह पत्र सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) को काशी शास्त्रार्थ के तीसरे दिन भेजा गया था क्योंकि शास्त्रार्थ उसी वर्ष हुआ था , तभी स्वामी दयानंद भागे थे ऐसा कहा जाता है
4. लेखक स्वयं कहते है कि उस पत्र के बारे में केवल उन्ही दोनों को पता था तो फिर लेखक को इस बात की जानकारी कहाँ से हुई वह भी महर्षि दयानंद जी के नरवान के 127 वर्ष बाद???
प्रलाप - भंजन -----------> पत्र के बारे में का अर्थ यह भी हो सकता है कि पत्र के विषय के बारे में । जो पत्र ही कहो तो भी पत्र देने के पश्चात् हो सकता है तैलंग स्वामी ने बाद में किसी शिष्य को यह बताया हो ! इस पर जब आपको स्वयं कुछ ज्ञान नहीं तो आपका खंडन करना व्यर्थ है । आपके दयानंद अनुमान अनुमान में भारत के सभी प्रसिद्ध चमत्कारी मंदिरों पर कल्पनाएँ गढ़ गए कि वहां ये होगा , वहां ऐसा होगा , तब आप सत्यार्थ प्रकाश में प्रमाण नहीं खोजते !
5. काशी शास्त्रार्थ के सभी पंडितों की सूचि ज्ञात है पर शास्त्रार्थ के दस्तावेजों में कहीं भी तैलंग स्वामी जी का जिक्र नहीं आता। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने कहा-"महर्षि 7 बार काशी गये, हर बार खुली चुनौती दी पर वहन कोई नहीं था जो उनकी चुनौती स्वीकार करता।" अंतिम बार स्वामीजी 19 नवम्बर 1879 को काशी आए और 5 मई 1880 तक रहे, अंतिम काशी यात्रा में लगभग 6 महीने उन्होने काशीस्थ ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा, पर सनातन धर्म की रक्षा के लिए तथाकथित प्रतिबद्ध कोई भी उनसे शास्त्रार्थ को न आया। इतिहास इसका प्रमाण है की महर्षि ने लगातार चुनौती दी पर किसी में सामर्थ्य नहीं था की स्वीकार करे, 10 जनवरी 1880 मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि को स्वामीजी ने पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा "अब तक कोई भी पंडित शास्त्रार्थ को तैयार न हुआ है "
प्रलाप - भंजन -----------> तैलंग स्वामी क्यों शास्त्रार्थ किये ही न थे तो भला उनका नाम क्यों होगा ? उन्होंने तो एक शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानंद के अनर्गल उत्पात का एक चिठ्ठी से हर हर महादेव कर दिया था जिससे वे बोरिया बिस्तर पकड़ कर चम्पत भये !
6. एक बात और ध्यान देने योग्य यह की मुंशी इन्द्रमणि के पोते भागवत सहाय बैरिस्टर ने एक बार इस्लाम अपनाना चाहां पर न तो "सनातन धर्म के रक्षक?" और न "श्री तैलंग स्वामीजी" ने ही उन्हें रोकना चाहा, हाँ आख़िरकार दयानंद के सैनिकों ने ही पुनः उन्हें वैदिक धर्म में वापस लाया। क्या यहाँ पर " सनातन धर्म रक्षकों?" ने सनातन धर्म की अवहेलना न की??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई लेना देना नहीं , केवल प्रसंगेतर लेख बढा कर लोगों को भ्रमित करने के लिए आपने ये व्यर्थ कथा लिखी है ।
7. स्वामी दयानंद जी परिव्राजक थे, उन्होंने दक्षिण के कुछ भागों को छोडकर सम्पूर्ण भारत का प्रलापण किया था, इसके बावजूद वे काशी 7 बार गये अपने जीवनकाल में। आप महर्षि से ऐसी अपेक्षा फिर कैसे कर सकते हैं की वे हमेशा काशी में ही रहते?? फिर यह रुदाली गायन का क्या मतलब की-"काशी छोड़ भागे" ?? इस करूण क्रन्दन की जड़ें 1869 के शास्त्रार्थ में आपकी पराजय में छुपी हैं।।
प्रलाप - भंजन -----------> ये आपकी मनोव्यथा है , यह उस चिठ्ठी का ही प्रभाव था कि दयानंद ने काशी में कोई उत्पात नहीं किया । काशी से पलायन करने के उपरांत स्वयं काशी नरेश ने उनको दयावश बुलाया था क्योंकि उन्होंने कठोर शब्द "धूर्त" बोला था और दयानंद जैसे भी थे थे तो संन्यासी ही , और उनको सम्मान दिया- ऐसा आपका समाजी इतिहास बोलता है कि काशी नरेश उनको बुलाये । जो काशी नरेश उनको ऐसे दयावश बुला सकते हैं क्या वो उनके लिए शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं करा सकते थे ? पर बेचारे दयानंद किस मुंह से हिम्मत करते ? काशी शास्त्रार्थ के बाद काशी में किसी भी प्रकार के किसी भी शास्त्रार्थ का कहीं कोई वर्णन नहीं है अपितु "दयानंद पराभूति " तथा " दुर्जनमुखमर्दन " जैसे भारतेंदु हरीशचंद्र जैसे प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों आदी की लेखनी के तत्कालीन प्रख्यात ग्रंथों का वर्णन मिलता है , इससे स्पष्ट है कि उस समय दयानंद का काशी में क्या चरित्र था !
8. आप लोगों को "सनातन धर्म की अवहेलना" सिर्फ मूर्तिपूजा के खंडन में नजर क्यों आती है?? क्यों आपको स्वामीजी के महान कार्य नहीं दीखते यथा- ब्रह्मचर्य का प्रचार, वेदों का प्रचार, आर्ष साहित्य का प्रचार, समाज सुधर, राष्ट्रवाद का आव्हान, राजनैतिक स्वतन्त्रता, गुरुकुल व्यवस्था का कायाकल्प, योग का प्रचार, 16 संस्कारों व यज्ञ का प्रचार, संस्कृत का प्रचार, गौरक्षा के लिए महान कार्य, दलित एवं नारी उद्धार आदि???? क्या सनातन धर्म केवल और केवल मूर्तिपूजा का विषय है? इससे आगे कुछ नहीं??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के " लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
9. क्यों "सनातन धर्म की अवहेलना" आप महर्षि में ही देखते हो?, श्रद्धाराम फिल्लौरी जो बाइबिल के पंजाबी अनुवादक थे, पुराणों को वे भी व्यासकृत न मानते थे, और उनकी लिखी आरती "ॐ जय जगदीश हरे" आप सब मन्दिरों में गाते हैं पर तब सनातन धर्म की अवहेलना नहीं होती? श्रद्धाराम फिल्लौरी दयानंद जी को दुश्मन मानता था, यहाँ तक की उसने उन्हें झर देने का षड्यंत्र रचा, उसकी जीवनी श्रद्धा प्रकाश में अनेकों बातें दयानंद जी के खिलाफ लिखी हैं। पर उसने भी तैलंग जी के स्वामी जी को पत्र की बात को कहीं उल्लिखित नहीं किया। जबकि उसने अपने इन सनातन धर्म रक्षार्थ अहंकार पूर्ण कार्यों के प्रति चिंता व शोक प्रकट किया ।
प्रलाप - भंजन -----------> कोई भी व्यक्ति अपने पास विद्यमान जानकारियों के आधार पर ही बोलता है , अब यदि कहा जाय कि रामपाल (एक प्रसिद्ध दयानंद द्रोही )
यदि श्रद्धाराम फिल्लौरी की बात नहीं किया तो क्या श्रद्धाराम फिल्लौरी का विरोध असत्य हो गया ????? अतः यह मात्र आपका प्रलाप है ।
प्रसिद्ध दयानंद द्रोही , कबीरपंथी रामपाल के दर्शन यहाँ करें -
https://www.youtube.com/watch?v=X1vW6zRjtJs
10. श्री तैलंग स्वामीजी का नाम लेकर स्वामी दयानंद जी को बदनाम किया जा रहा है जबकि। उस समय के 'सनातन धर्म के शीर्ष रक्षक' श्रद्धाराम फिल्लोरी अपने अंतिम समय में इतने शर्मिंदा व शोकाकुल थे की स्वामीजी को लम्बा पत्र लिखकर उनके प्रति अपने सम्मान व उपासना के भाव को उजागर किया।
प्रलाप - भंजन -----------> श्रद्धाराम फिल्लोरी अगर शर्मिन्दा होता है तो इससे चिठ्ठी घटना को क्या लेना देना ? कबीरपंथी रामपाल का उदाहरण आपको ऊपर के वक्तव्य में दर्शा दिया गया है ।
11. श्री पंडित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जिन्होंने महर्षि का वृहद चरित्र लिखा है वे आर्यसमाज के सदस्य न थे पर स्वामीजी के चरित्र व योगदान से इतने प्रभावीत थे की अपना सम्पूर्ण जीवन स्वामीजी के जीवन इतिहास को संकलित करने व उसे आत्मकथा बनाने में ही लगा दिया । काशी से उनका सम्बन्ध भी जगजाहिर है परन्तु उनके लेखन में भी कहीं भी श्री तैलंग स्वामी जी व इस तथाकथित पत्र का जिक्र नहीं है
प्रलाप - भंजन -----------> समाजी लेखकों का क्या है ? आर्य समाज के इतिहास पर ही परस्पर इतना विवाद है कि आपके ही "राजेन्द्र जिज्ञासु " को अभी अभी एक ग्रन्थ निकालना पडा है , नाम है - इतिहास प्रदूषण, स्वयं आप समाजियों के अनुसार यह ग्रन्थ आपके ही भवानी लाल भारतीय के हदीसी कारनामों पर लिखा गया है । लेखक प्रो राजेंद्र जिज्ञासु , प्रकाशक : पण्डित लेखराम वैदिक
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10200461879347650&set=a.1957054024155.53969.1776872054&type=1&theater
12. इलाहबाद के प्रख्यात पंडित श्री शिवराम पण्डे काशी में दयानन्द जी के बहुत निकटस्थ रहे, उन्होंने काशी के पंडितों पर स्वामी दयानंद जी के प्रभाव का घन वर्णन किया है पर उन तक ने कहीं भी इस पत्र व श्री तैलंग जी स्वामी का ज़िक्र नहीं किया है।
प्रलाप - भंजन -----------> आर्य समाजी इतिहासकार भला क्यों करने लगे वर्णन ? आपके ही इन इतिहासकारों की यथार्थता भवानी लाल के उदाहरण से ऊपर सप्रमाण दर्शा दी गयी है ।
13. स्वामीजी ने स्वयं कभी ऐसे प्रभावशाली पुरुष के बारे में नहीं बताया जिनके एक पत्र के कारण उन्होंने वाराणसी छोड़ दी हो। पता नहीं राष्ट्र धर्म के लेखक को यह जानकारी कौनसे ठंडे बसते से मिली है ।
प्रलाप - भंजन -----------> स्वामी दयानंद भला क्यों उस चिठ्ठी की कथा खुलेआम बताने लगे ? आपके तर्कों की भी हद है !
14. दयानंद जी के जीवनकाल में जब पुणे से श्री जोशी जी एक सभा में पधारे तब श्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने काशी के पंडितों को लताड़ा था, यह काशी के समाचार पत्रों में भी छपा था। यही भारतेंदु जी शुरुआत में सनातन धर्म रक्षार्थ? दयानंद के विरुद्ध थे, पर बाद में स्वामी दयानंद जी की ओर झुक गये थे। क्या पौराणिक बन्धु उत्तर देंगे ऐसा क्यों हुआ??
प्रलाप - भंजन -----------> चोर की भी जब हद से अधिक कम्बल परेड हो जाती है तो लोग दया दिखाकर उसका पक्ष लेना शुरू करते हैं , यदि किसी कविहृदय में किसी भगवाधारी संन्यासी की चतुर्विध दुर्दशा पर कुछ सहानुभूति का बीज उत्पन्न हो गया हो तो किमाश्चर्यम् ?
15. सत्य यह है की आप जैसे सनातन धर्मी स्वामी दयानंद का विरोध करने को घोर सनातन धर्म समझते हो। यही आपका सनातन धर्म है। यहाँ तक की श्री आचार्य धर्मेन्द्र जी भी आप जैसे पंडितों की इस रीति से प्रसन्न नहीं हैं, इसलिए यहाँ तक कहते हैं की पंडित कालूराम, पंडित माधवाचार्य, पंडित गिरधर शर्मा और पंडित कृष्ण शास्त्री आदि ने कभी भी अंधविश्वासों का विरोध नहीं किया। परन्तु स्वामी दयानंद ने ऐसे रोमांचकारी कार्यों को सदैव अपना धार्मिक कर्तव्य समझा।
प्रलाप - भंजन -----------> इस वक्तव्य का भी अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के "लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
16. पूर्व में दयानंद जी को बदनाम करने हेतु किताबें छपती रहीं हैं जिनमें 'दयानंद छल कपट दर्पण' आदि मुख्य हैं, इसका लिखने वाला था जियालाल = जिसने स्वयं स्वीकार किया था की महर्षि दयानंद धर्म रक्षक थे। ऐसी अनेकों किताबे अन्यों ने लिखीं, मुसलमानों और ईसाईयों समेत परन्तु उनमें भी कही भी इस मिथ्या आरोप का लेश भी नहीं है ।
प्रलाप - भंजन -----------> जियालाल जब स्वयं दयानंद को छलिया और कपटी बता रहे हैं तो स्पष्ट है कि दयानंद के जीवन में छल कपट तो अवश्य था , अच्छाई के अंश किसमें नहीं होते ? दयानंद की अच्छाई के कुछेक न्यूनांश यदि जियालाल ने स्वीकृत किये तो इससे दयानंद के कपट और छल के महा भयंकर गहरे दाग नहीं छिप गए !!!
मुदित आर्य - अतः मेरा दोनों ही पक्षों से निवेदन है की इस हिन्दू कुल कलह को आज इस पोस्ट के साथ समाप्त कर के धर्म पथ पर उत्कर्ष के कदम उठाए जाएँ।
प्रलाप - भंजन -----------> वाह रे ! पूरी पोस्ट पर स्वघोषित आर्य उपनाम के अनुरूप दयानंद का अनर्गल व्यर्थ महिमागान , और अंत में दोनों पक्षों को नसीहत के नाम पर अपना भोला भगत बन गए !!! पलायनवादी दयानंद और वैदिक -धर्मद्रोही एवं कपटी आर्य - समाज के प्रचार का कोई और शातिराना तरीका ढूंढिए !!
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
।। जय श्री राम ।।
__________________
१- "अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की एक ऐसी अद्भुत चिठ्ठी ।
जिसने कर डाली थी काशी से दयानन्द की पूरी छुट्टी ।।
भावार्थ - परम अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की चिठ्ठी ऐसी अद्भुत थी कि काशी में बिना अपने मन के अनुकूल निर्णय के एक पग भी काशी से न बढाने का हो -हल्ला मचाने वाले मतवाले दयानंद की काशी से छुट्टी कर डाली , पूरी छुट्टी शब्द का अभिप्राय यह है कि यद्यपि काशी के वेदज्ञ पंडितों ने दयानंद की वैचारिक छुट्टी कर दी थी तथापि व्यावहारिक धरातल पर केजरीवाल की भांति काशी में अनर्गल उत्पात मचाने वाले दयानंद की वृथा हो -हुंकारों से सभ्य समाज व्यथित हो रहा था , काशी नरेश एक सन्यासी होने के नाते दयानंद को कुछ कर नहीं सकते थे , ऐसे में काशी में दयानंद के
इस उत्पात को काशीपुरेश्वर सचल विश्वनाथ योगीराज ने स्वधाम में शान्ति बनाए रखने हेतु पूर्णतः समाप्त कर दिया !
२- दयानंद स्वयं न पचा पाया था तो बेचारे अंध - चेलों को पचेगी कहाँ ?
पिला दी अपने अवधूत बाबा ने दयानंद को ऐसी घुट्टी ।।
भावार्थ - स्वयं स्वामी दयानंद इस चिठ्ठी के ज्वर से जर्जरित होकर काशी से भाग खड़े हुए थे , ऐसे में उनके आधुनिक अन्धपरम्परा न्याय का सकुशल निर्वहन करने वाले समाजी चेलों को उसका वर्णन दग्ध करे तो आश्चर्य कैसा ? भंगोटा पिलाने में मशहूर काशीपति विश्वनाथ ने भंगेड़ी दयानंद (स्वामी दयानंद के भांग , हुक्का चिलम आदि पीने का वर्णन स्वयं उनकी जीवनी में है इसके लिए आप यू ट्यूब पर यह लिंक देखें -
https://www.youtube.com/watch?v=uWCPbDV2lUU )
को ऐसी घुट्टी पिलाई कि बेचारे दयानंद के दुरभिमान का स्वास्थ्य बिगड़ गया !
३- वाह हे योगी आपका घोटा ! जिसने उलट दिया दयानंद का लोटा ।
चिठ्ठी से आपकी दयानंद खोटा । भागा भी यूं , क्या खडाऊं क्या सोटा ।। _/\_
भावार्थ - हे योगेश्वर ! आपके ऐसे अद्भुत घोटे का क्या कहना ! जिसने मतवाले दयानंद का भी लोटा पलट दिया अर्थात् आपके लोटे का घोटा पीने के उपरांत दयानंद अपने लोटे को बिसर गया , यानी अपने आपको भूलकर बस आपका ही ध्यान उसके मनो मस्तिष्क पर चढ़ गया !!! फिर तो जहां देखे , सर्वत्र दयानंद को आप ही आप दिखाई देने लगे ! ! ऐसी मनोविदालिता में खोटे स्वभाव वाला वह दयानंद काशी से ऐसे भागा कि अपना सोटा और खडाऊं तक का भी ध्यान न रहा अर्थात् सर पर चप्पल रखकर औंधे भागने की कहावत चरितार्थ कर गया !
..बम बम भोले !! हर हर शंकर !!
........ जय योगीराज !!! हर हर महादेव !
_________________________
अथ आर्यमुदित -प्रलाप- भंजनम् ----------->
____________________
1 .श्री अजय सिन्ह द्वारा तैलंग स्वामी पर लिखित एक लेख 2010 में नागपुर की राष्ट्रधर्म मगज़ीन में छपा जिसमें यह नई हदीस उद्घाटित की गयी की जब स्वामीजी ने बनारस में शास्त्रार्थ किया उसके बाद तैलंग स्वामीजी ने उन्हंज़ एक पत्र भेजा जिसे पढकर वे वाराणसी छोड़ गये और उस पत्र में लिखा मात्र सिर्फ दयानंद जी व तैलंग जी को ही पता था।
प्रलाप - भंजन ----------->यह आपका "नई हदीस" कहना आपकी मनोव्यथामात्र है ।
2. इस लेख के लेखक अजय सिन्ह ने तैलंग स्वामी जी के लिए तो जी शब्द प्रयुक्त किया पर महान धर्मउद्धारक स्वामी दयानंद जी के लिए जी शब्द प्रयुक्त नहीं किया, न ही इस कथा का कोई संदर्भ ही बताया, इसीसे इनकी मंशा का अनुमान लगया जा सकता है।
प्रलाप - भंजन -----------> आपने लेख के लिए शुरुआत में ही " नयी हदीस " शब्द प्रयोग किया है , स्वयं आपकी मंशा स्पष्ट हो गयी है । और जो व्यक्ति भाग गया हो उसके लिए जी क्या लगाना ? जिसने भगाया उसके तेज को आदर देना सहज है । प्रायः शिष्यों की श्रवण परम्परा से ही सुनी आयी बहुत यथार्थता लोक में प्रमाणरूप से कथित हो जाती है । इस प्रकार के एक सामान्य उदाहरण के लिए देखिये धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के अद्भुत तेज के विषय में राजीव दीक्षित का यह वक्तव्य -
https://www.youtube.com/watch?v=x4HMJ0KbOIY
स्वामी तैलंग स्वामी जी की जीवनी में (यथा - "भारत के महान् योगी" उक्त पत्रिका जिसका आप स्वयं वर्णन कर रहे हैं इत्यादि ) से जुडी ये घटनाएं यदि आपको स्वीकृत नहीं होती हैं तो ये आपकी अपनी सोच है , इस पर हम क्या करें ? आपको प्रमाण नहीं लगती तो इसमें कौन क्या कर सकता है ? इतिहास तो इति ह एवं आसीत् (ऐसा हुआ था )-ऐसा वृद्धव्यवाहार से सुनकर ही प्रायः ज्ञात होता है । आपको इसमें श्रद्धा नहीं तो हम क्या करें ? आप अपना विधवा विलाप अपने ही आर्य उपनाम धारी वेद के स्वघोषित ठेकेदारों को सुनाइये ।
3. वह तथाकथित पत्र किस वर्ष स्वामीजी को तैलंग जी द्वारा भेजा गया यह भी उल्लिखित नहीं है, जबकि स्वामीजी जीवनकाल में बनारस 7 बार गये.
प्रलाप - भंजन -----------> यह पत्र सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) को काशी शास्त्रार्थ के तीसरे दिन भेजा गया था क्योंकि शास्त्रार्थ उसी वर्ष हुआ था , तभी स्वामी दयानंद भागे थे ऐसा कहा जाता है
4. लेखक स्वयं कहते है कि उस पत्र के बारे में केवल उन्ही दोनों को पता था तो फिर लेखक को इस बात की जानकारी कहाँ से हुई वह भी महर्षि दयानंद जी के नरवान के 127 वर्ष बाद???
प्रलाप - भंजन -----------> पत्र के बारे में का अर्थ यह भी हो सकता है कि पत्र के विषय के बारे में । जो पत्र ही कहो तो भी पत्र देने के पश्चात् हो सकता है तैलंग स्वामी ने बाद में किसी शिष्य को यह बताया हो ! इस पर जब आपको स्वयं कुछ ज्ञान नहीं तो आपका खंडन करना व्यर्थ है । आपके दयानंद अनुमान अनुमान में भारत के सभी प्रसिद्ध चमत्कारी मंदिरों पर कल्पनाएँ गढ़ गए कि वहां ये होगा , वहां ऐसा होगा , तब आप सत्यार्थ प्रकाश में प्रमाण नहीं खोजते !
5. काशी शास्त्रार्थ के सभी पंडितों की सूचि ज्ञात है पर शास्त्रार्थ के दस्तावेजों में कहीं भी तैलंग स्वामी जी का जिक्र नहीं आता। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने कहा-"महर्षि 7 बार काशी गये, हर बार खुली चुनौती दी पर वहन कोई नहीं था जो उनकी चुनौती स्वीकार करता।" अंतिम बार स्वामीजी 19 नवम्बर 1879 को काशी आए और 5 मई 1880 तक रहे, अंतिम काशी यात्रा में लगभग 6 महीने उन्होने काशीस्थ ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा, पर सनातन धर्म की रक्षा के लिए तथाकथित प्रतिबद्ध कोई भी उनसे शास्त्रार्थ को न आया। इतिहास इसका प्रमाण है की महर्षि ने लगातार चुनौती दी पर किसी में सामर्थ्य नहीं था की स्वीकार करे, 10 जनवरी 1880 मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि को स्वामीजी ने पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा "अब तक कोई भी पंडित शास्त्रार्थ को तैयार न हुआ है "
प्रलाप - भंजन -----------> तैलंग स्वामी क्यों शास्त्रार्थ किये ही न थे तो भला उनका नाम क्यों होगा ? उन्होंने तो एक शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानंद के अनर्गल उत्पात का एक चिठ्ठी से हर हर महादेव कर दिया था जिससे वे बोरिया बिस्तर पकड़ कर चम्पत भये !
6. एक बात और ध्यान देने योग्य यह की मुंशी इन्द्रमणि के पोते भागवत सहाय बैरिस्टर ने एक बार इस्लाम अपनाना चाहां पर न तो "सनातन धर्म के रक्षक?" और न "श्री तैलंग स्वामीजी" ने ही उन्हें रोकना चाहा, हाँ आख़िरकार दयानंद के सैनिकों ने ही पुनः उन्हें वैदिक धर्म में वापस लाया। क्या यहाँ पर " सनातन धर्म रक्षकों?" ने सनातन धर्म की अवहेलना न की??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई लेना देना नहीं , केवल प्रसंगेतर लेख बढा कर लोगों को भ्रमित करने के लिए आपने ये व्यर्थ कथा लिखी है ।
7. स्वामी दयानंद जी परिव्राजक थे, उन्होंने दक्षिण के कुछ भागों को छोडकर सम्पूर्ण भारत का प्रलापण किया था, इसके बावजूद वे काशी 7 बार गये अपने जीवनकाल में। आप महर्षि से ऐसी अपेक्षा फिर कैसे कर सकते हैं की वे हमेशा काशी में ही रहते?? फिर यह रुदाली गायन का क्या मतलब की-"काशी छोड़ भागे" ?? इस करूण क्रन्दन की जड़ें 1869 के शास्त्रार्थ में आपकी पराजय में छुपी हैं।।
प्रलाप - भंजन -----------> ये आपकी मनोव्यथा है , यह उस चिठ्ठी का ही प्रभाव था कि दयानंद ने काशी में कोई उत्पात नहीं किया । काशी से पलायन करने के उपरांत स्वयं काशी नरेश ने उनको दयावश बुलाया था क्योंकि उन्होंने कठोर शब्द "धूर्त" बोला था और दयानंद जैसे भी थे थे तो संन्यासी ही , और उनको सम्मान दिया- ऐसा आपका समाजी इतिहास बोलता है कि काशी नरेश उनको बुलाये । जो काशी नरेश उनको ऐसे दयावश बुला सकते हैं क्या वो उनके लिए शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं करा सकते थे ? पर बेचारे दयानंद किस मुंह से हिम्मत करते ? काशी शास्त्रार्थ के बाद काशी में किसी भी प्रकार के किसी भी शास्त्रार्थ का कहीं कोई वर्णन नहीं है अपितु "दयानंद पराभूति " तथा " दुर्जनमुखमर्दन " जैसे भारतेंदु हरीशचंद्र जैसे प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों आदी की लेखनी के तत्कालीन प्रख्यात ग्रंथों का वर्णन मिलता है , इससे स्पष्ट है कि उस समय दयानंद का काशी में क्या चरित्र था !
8. आप लोगों को "सनातन धर्म की अवहेलना" सिर्फ मूर्तिपूजा के खंडन में नजर क्यों आती है?? क्यों आपको स्वामीजी के महान कार्य नहीं दीखते यथा- ब्रह्मचर्य का प्रचार, वेदों का प्रचार, आर्ष साहित्य का प्रचार, समाज सुधर, राष्ट्रवाद का आव्हान, राजनैतिक स्वतन्त्रता, गुरुकुल व्यवस्था का कायाकल्प, योग का प्रचार, 16 संस्कारों व यज्ञ का प्रचार, संस्कृत का प्रचार, गौरक्षा के लिए महान कार्य, दलित एवं नारी उद्धार आदि???? क्या सनातन धर्म केवल और केवल मूर्तिपूजा का विषय है? इससे आगे कुछ नहीं??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के " लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
9. क्यों "सनातन धर्म की अवहेलना" आप महर्षि में ही देखते हो?, श्रद्धाराम फिल्लौरी जो बाइबिल के पंजाबी अनुवादक थे, पुराणों को वे भी व्यासकृत न मानते थे, और उनकी लिखी आरती "ॐ जय जगदीश हरे" आप सब मन्दिरों में गाते हैं पर तब सनातन धर्म की अवहेलना नहीं होती? श्रद्धाराम फिल्लौरी दयानंद जी को दुश्मन मानता था, यहाँ तक की उसने उन्हें झर देने का षड्यंत्र रचा, उसकी जीवनी श्रद्धा प्रकाश में अनेकों बातें दयानंद जी के खिलाफ लिखी हैं। पर उसने भी तैलंग जी के स्वामी जी को पत्र की बात को कहीं उल्लिखित नहीं किया। जबकि उसने अपने इन सनातन धर्म रक्षार्थ अहंकार पूर्ण कार्यों के प्रति चिंता व शोक प्रकट किया ।
प्रलाप - भंजन -----------> कोई भी व्यक्ति अपने पास विद्यमान जानकारियों के आधार पर ही बोलता है , अब यदि कहा जाय कि रामपाल (एक प्रसिद्ध दयानंद द्रोही )
यदि श्रद्धाराम फिल्लौरी की बात नहीं किया तो क्या श्रद्धाराम फिल्लौरी का विरोध असत्य हो गया ????? अतः यह मात्र आपका प्रलाप है ।
प्रसिद्ध दयानंद द्रोही , कबीरपंथी रामपाल के दर्शन यहाँ करें -
https://www.youtube.com/watch?v=X1vW6zRjtJs
10. श्री तैलंग स्वामीजी का नाम लेकर स्वामी दयानंद जी को बदनाम किया जा रहा है जबकि। उस समय के 'सनातन धर्म के शीर्ष रक्षक' श्रद्धाराम फिल्लोरी अपने अंतिम समय में इतने शर्मिंदा व शोकाकुल थे की स्वामीजी को लम्बा पत्र लिखकर उनके प्रति अपने सम्मान व उपासना के भाव को उजागर किया।
प्रलाप - भंजन -----------> श्रद्धाराम फिल्लोरी अगर शर्मिन्दा होता है तो इससे चिठ्ठी घटना को क्या लेना देना ? कबीरपंथी रामपाल का उदाहरण आपको ऊपर के वक्तव्य में दर्शा दिया गया है ।
11. श्री पंडित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जिन्होंने महर्षि का वृहद चरित्र लिखा है वे आर्यसमाज के सदस्य न थे पर स्वामीजी के चरित्र व योगदान से इतने प्रभावीत थे की अपना सम्पूर्ण जीवन स्वामीजी के जीवन इतिहास को संकलित करने व उसे आत्मकथा बनाने में ही लगा दिया । काशी से उनका सम्बन्ध भी जगजाहिर है परन्तु उनके लेखन में भी कहीं भी श्री तैलंग स्वामी जी व इस तथाकथित पत्र का जिक्र नहीं है
प्रलाप - भंजन -----------> समाजी लेखकों का क्या है ? आर्य समाज के इतिहास पर ही परस्पर इतना विवाद है कि आपके ही "राजेन्द्र जिज्ञासु " को अभी अभी एक ग्रन्थ निकालना पडा है , नाम है - इतिहास प्रदूषण, स्वयं आप समाजियों के अनुसार यह ग्रन्थ आपके ही भवानी लाल भारतीय के हदीसी कारनामों पर लिखा गया है । लेखक प्रो राजेंद्र जिज्ञासु , प्रकाशक : पण्डित लेखराम वैदिक
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10200461879347650&set=a.1957054024155.53969.1776872054&type=1&theater
12. इलाहबाद के प्रख्यात पंडित श्री शिवराम पण्डे काशी में दयानन्द जी के बहुत निकटस्थ रहे, उन्होंने काशी के पंडितों पर स्वामी दयानंद जी के प्रभाव का घन वर्णन किया है पर उन तक ने कहीं भी इस पत्र व श्री तैलंग जी स्वामी का ज़िक्र नहीं किया है।
प्रलाप - भंजन -----------> आर्य समाजी इतिहासकार भला क्यों करने लगे वर्णन ? आपके ही इन इतिहासकारों की यथार्थता भवानी लाल के उदाहरण से ऊपर सप्रमाण दर्शा दी गयी है ।
13. स्वामीजी ने स्वयं कभी ऐसे प्रभावशाली पुरुष के बारे में नहीं बताया जिनके एक पत्र के कारण उन्होंने वाराणसी छोड़ दी हो। पता नहीं राष्ट्र धर्म के लेखक को यह जानकारी कौनसे ठंडे बसते से मिली है ।
प्रलाप - भंजन -----------> स्वामी दयानंद भला क्यों उस चिठ्ठी की कथा खुलेआम बताने लगे ? आपके तर्कों की भी हद है !
14. दयानंद जी के जीवनकाल में जब पुणे से श्री जोशी जी एक सभा में पधारे तब श्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने काशी के पंडितों को लताड़ा था, यह काशी के समाचार पत्रों में भी छपा था। यही भारतेंदु जी शुरुआत में सनातन धर्म रक्षार्थ? दयानंद के विरुद्ध थे, पर बाद में स्वामी दयानंद जी की ओर झुक गये थे। क्या पौराणिक बन्धु उत्तर देंगे ऐसा क्यों हुआ??
प्रलाप - भंजन -----------> चोर की भी जब हद से अधिक कम्बल परेड हो जाती है तो लोग दया दिखाकर उसका पक्ष लेना शुरू करते हैं , यदि किसी कविहृदय में किसी भगवाधारी संन्यासी की चतुर्विध दुर्दशा पर कुछ सहानुभूति का बीज उत्पन्न हो गया हो तो किमाश्चर्यम् ?
15. सत्य यह है की आप जैसे सनातन धर्मी स्वामी दयानंद का विरोध करने को घोर सनातन धर्म समझते हो। यही आपका सनातन धर्म है। यहाँ तक की श्री आचार्य धर्मेन्द्र जी भी आप जैसे पंडितों की इस रीति से प्रसन्न नहीं हैं, इसलिए यहाँ तक कहते हैं की पंडित कालूराम, पंडित माधवाचार्य, पंडित गिरधर शर्मा और पंडित कृष्ण शास्त्री आदि ने कभी भी अंधविश्वासों का विरोध नहीं किया। परन्तु स्वामी दयानंद ने ऐसे रोमांचकारी कार्यों को सदैव अपना धार्मिक कर्तव्य समझा।
प्रलाप - भंजन -----------> इस वक्तव्य का भी अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के "लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
16. पूर्व में दयानंद जी को बदनाम करने हेतु किताबें छपती रहीं हैं जिनमें 'दयानंद छल कपट दर्पण' आदि मुख्य हैं, इसका लिखने वाला था जियालाल = जिसने स्वयं स्वीकार किया था की महर्षि दयानंद धर्म रक्षक थे। ऐसी अनेकों किताबे अन्यों ने लिखीं, मुसलमानों और ईसाईयों समेत परन्तु उनमें भी कही भी इस मिथ्या आरोप का लेश भी नहीं है ।
प्रलाप - भंजन -----------> जियालाल जब स्वयं दयानंद को छलिया और कपटी बता रहे हैं तो स्पष्ट है कि दयानंद के जीवन में छल कपट तो अवश्य था , अच्छाई के अंश किसमें नहीं होते ? दयानंद की अच्छाई के कुछेक न्यूनांश यदि जियालाल ने स्वीकृत किये तो इससे दयानंद के कपट और छल के महा भयंकर गहरे दाग नहीं छिप गए !!!
मुदित आर्य - अतः मेरा दोनों ही पक्षों से निवेदन है की इस हिन्दू कुल कलह को आज इस पोस्ट के साथ समाप्त कर के धर्म पथ पर उत्कर्ष के कदम उठाए जाएँ।
प्रलाप - भंजन -----------> वाह रे ! पूरी पोस्ट पर स्वघोषित आर्य उपनाम के अनुरूप दयानंद का अनर्गल व्यर्थ महिमागान , और अंत में दोनों पक्षों को नसीहत के नाम पर अपना भोला भगत बन गए !!! पलायनवादी दयानंद और वैदिक -धर्मद्रोही एवं कपटी आर्य - समाज के प्रचार का कोई और शातिराना तरीका ढूंढिए !!
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
।। जय श्री राम ।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें