तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् , त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीँ, विहन्तुं व्याक्रोशीँ विदधत इहैके जडधियः ॥ _/\_
प्रिय मित्रों !
यद्यपि स्वामी दयानन्द के
काशी-शास्त्रार्थ की यथार्थता से समस्त प्रौढ़ पौराणिक जगत्
सर्वथा सुपरिचित ही है कि कैसे काशी की प्रतिभावान् पंडितमण्डली
ने एक -एक करके स्वामी दयानंद को छब्बे जी से दूबे जी
वाली कहावत का पात्र सिद्ध किया था , एक के बाद एक काशी
के पण्डितों ने स्वामी दयानंद को धुल चटाई तथापि कुछ आर्य
-समाजी इसे तोड़मरोड़ कर और इसकी मौलिकता को अपने मनोवांछित
शब्दजाल से ढक कर पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करके अपनी
मनोव्यथा हल्की करने का असफल प्रयास करते रहते हैं |
ऐसा ही एक उदाहरण इस अंतर्जाल के माध्यम में देखने को मिला है , यथा –
http://www.aryamantavya.in/kashi-debate-of-swami-dayanand/
इन सब ओछी छल -छद्म –
धूर्तताओं से यथार्थावेत्ता विज्ञ पौराणिक जगत् को तो कोई
लेना-देना नहीं रहता किन्तु सत्य -सनातन-वैदिक-हिन्दू – धर्म पर
आस्थान्वित मृदुमेधा वाले नव जिज्ञासुओं में कदाचित् भ्रम की
स्थिति हो जाती है , प्रायः लोक में भी देखा जाता है कि
बार-बार उद्घोष करके बोलने से असत्य भी अलातचक्र की भांति
सत्य सा प्रतीत होने लगता है तद्वत |इसीलिये
इस सम्पूर्ण मिथ्या प्रलापों और आक्षेपों का हम सप्रमाण
भ्रम – भंजन करेंगे | इसके लिए हमने ये निर्णय किया है कि हम
काशी शास्त्रार्थ का पौराणिक – संस्करण न उठाकर समाजी – संस्करण ( संवत् १९३७ (सन् १८८० ) में वैदिक यन्त्रालय , काशी से प्रकाशित निर्वाण शताब्दी संस्करण ) के मान्य संवादों को आधार बनाकर ही इनका भ्रमोच्छेद करेंगे !
यद्यपि इस संस्करण में समाजी –
मण्डली ने सर्वत्र काट-छांट कर जगह -जगह अपने मनोवांछित
शब्दों से व्याख्याओं की टिप्पणियाँ आदि डाल -डाल कर दिन को
रात सिद्ध करने का खूब प्रयास किया है, शास्त्रार्थ प्रदर्शन
से पूर्व एक लम्बी भूमिका में अपना विधवा- विलाप , स्वामी
दयानंद का मिथ्या यशोगान लिख डाला है किन्तु वेदमन्त्र की
वो सूक्ति सुप्रसिद्ध ही है कि ” सत्यमेव जयते नानृतम् ” तात्पर्य
यह है कि अनृत ( असत्य ) चाहे कितना ही प्रयास कर ले
किन्तु सत्य का उत्कर्ष तो फिर भी हो ही जाता है | यही
इन समाजियों के साथ भी हुआ है , ये बेचारे चाह कर भी अपने
स्वामी दयानंद का पंगु शास्त्र ज्ञान , धूर्तता , छल -प्रपंच
एवं येन -केन -प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् के असफल प्रयासों
को इतनी धांधलियों के उपरान्त भी छिपा नहीं पाए हैं |
एक सामान्य सा निष्पक्ष विचारक
भी आसानी से ये समझ सकता है कि जब काशी – शास्त्रार्थ में स्वामी
दयानंद का ही पलड़ा सर्वत्र भारी रहा है तो तुम समाजी लोग
अपने काशी – शास्त्रार्थ संबंधी पुस्तकों या लेखों में उस पर
तरह -तरह की व्याख्याएं , लम्बी -लम्बी टिप्पणियाँ आदि क्यों
घुसेड़ते हो ? सीधा सीधा केवल संवाद मात्र क्यों नहीं प्रस्तुत
कर देते ? पाठक उस संवाद को पढ़कर अपने आप ही समझ जाएगा
कि कौन सा पक्ष मजबूत है और कौन सा शिथिल !! क्यों इतनी
लम्बी – लम्बी टिप्पणियां , यहाँ पर स्वामी जी का अभिप्राय ये
है , ये सो लिखते हो ??
तुम्हारी चोर की दाड़ी में
तिनका तो तुम्हारी ये शास्त्रार्थ – संवाद में नीचे ऊपर दायें
बाएं लिखी संवाद से भी दोगुनी टिप्पणियाँ अथवा व्याख्याएं
स्वयं ही साबित कर देती हैं | किं बहुना ?
खैर , पुनः देखिये आगे यथार्थता –
यह शास्त्रार्थ कार्तिक सुदी १२ सं०
१९२६ (तदनुसार सन् १८६९ ) , मंगलवार को शुरू हुआ , शास्त्रार्थ
शुरू होने से पूर्व ही अपने खोखले वेदज्ञान के घमण्ड में
चूर स्वामी दयानंद ने काशीनरेश से यह पूछा कि क्या
पण्डित मण्डली पुस्तक लाई है या नहीं ? (वेदानां पुस्तकान्यानीतानि न वा ? ) ,
तब काशी के पंडितों की रग-रग से सुपरिचित काशीनरेश ने कहा
कि वेद तो सम्पूर्ण पंडितों को कंठस्थ है , फिर भला पुस्तकों
का क्या प्रयोजन है ? (वेदाः पण्डितानां कंठस्थाः सन्ति , किं प्रयोजनं पुस्ताकानामिति ?) जब
काशी के पण्डितों की विद्वत्ता को स्वामी दयानंद ने सुना
तो खिसिया कर बोले कि पुस्तक के बिना पूर्वापर प्रकरण का
ठीक से विचार नहीं हो सकता | (पुस्तकैर्विना पूर्वापरप्रकरणस्य यथावद्विचारस्तु न भवति ) अब
आप विचारक महानुभाव ज़रा स्वामी दयानन्द के इस वक्तव्य पर विचार
कीजिये , भला , जब स्वामी दयानंद स्वयं पुस्तक लेकर आये थे
तो उनको पूर्वापर प्रकरण के लिए काशी के पंडितों की पुस्तक की
आवश्यकता क्यों पड़ गयी ? क्या अपनी पुस्तक से पूर्वापर
प्रकरण नहीं देख सकते थे ? और यदि जब स्वयं ही पुस्तक नहीं
लेकर आये तो किस मुंह से प्रतिपक्ष से पुस्तक लाने की अपेक्षा
कर रहे हैं ?
कुल
मिलाकर वास्तविकता यह थी कि स्वामी दयानंद को लगता था कि
काशी के पंडित भी उनकी ही तरह से बिना गाँठ के पंसारी
होंगे , जिनको येन -केन प्रकारेण छल छद्मता आदि कूटनीतिक प्रयोग
से पराजित कर सारे सनातन धर्म पर अपना एकछत्र प्रभुत्व जता
लूंगा , किन्तु जब काशीनरेश के मुख से सुना कि काशी के पंडित
तो वेदों को कंठ में लिए रहते हैं तो बेचारे दयानंद की आशा
हताशा में बदल गयी , जिसे छुपाने के लिए स्वामी दयानन्द ने
पूर्वापरप्रकरण का कुतर्क प्रस्तुत किया |
(स्वामी दयानंद का यह पुस्तक
वाला पोप – प्रपंच आगे शास्त्रार्थ के मध्य में आपको और
अधिक सुस्पष्ट हो जाएगा , जब ये अपने ही जाल में फंस कर
अपने खोखले वेदज्ञान के कारण विद्वानों से वेद की पुस्तक
मागेंगे , देखिएगा आगे सप्रमाण )|
जब स्वामी दयानन्द ये समझ गए कि
यहाँ वेद की पुस्तक कोई पंडित नहीं लाने वाला है, यहाँ तो
सबके कंठ में वेद बसे हैं तो उनके सामने कहीं मेरी पोल न
खुल जाए इस भय से बेचारे स्वामी दयानंद हताशा छिपाकर बोले कि
कोई बात नहीं अगर पुस्तक नहीं लाते तो (अस्तु तावत् पुस्तकानि
नानीतानि | )
( वाह रे स्वामी दयानंद !
पहले स्वयं ही पूर्वापरप्रकरण दर्शन की अनिवार्यता हवाला देकर
पुस्तक मंगवाओ , फिर स्वयं ही कहो कि कोई बात नहीं , काशी
नरेश से पण्डितों की विद्वत्ता का परिचय सुनकर तो शुरुआत में
ही स्वामी दयानन्द के होश ढीले हो गए ! )
अब शास्त्रार्थ शुरू हुआ – स्वामी
दयानन्द ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि मैं एक से अधिक
लोग होने पर प्रश्नों का उत्तर नहीं दूंगा , तो रघुनाथ
प्रसाद कोतवाल ने ये नियम किया कि स्वामी जी से एक -एक करके
पंडित विचार करें |
(तदा पण्डित रघुनाथप्रसादकोटपालेन नियमः कृतो दयानन्दस्वामिना सहैकैकः पण्डितो वदतु न तु युगपदिति | )
इस नियम के ही आधार पर सबसे
पहले पंडित श्री ताराचरण भट्टाचार्य “तर्करत्न” स्वामी दयानंद के
सम्मुख विचार हेतु प्रस्तुत हुए |
(
यहाँ पर यह स्पष्ट है कि आर्य समाजी जो बोलते हैं कि
काशीशास्त्रार्थ में काशी के पंडित एक साथ भीड़ बनाकर स्वामी
दयानंद से शास्त्रार्थ के नाम पर उलझे थे , वह इन धूर्त
समाजियों का काशी के पण्डितों के प्रति अपना व्यक्तिगत
द्वेषमात्र है | जबकि यथार्थता यह थी कि एक एक करके सबने दयानंद
का झूठापन और उनकी धूर्तता को सिद्ध किया था )
अस्तु , अब आगे सुनिए स्वामी दयानन्द को धूल चटाने वाला प्रामाणिक रोचक काशी – शास्त्रार्थ – संवाद –
(……शेष क्रमशः ) |
धर्म की जय हो ! अधर्म का नाश हो !प्राणियों में सद्भावना हो ! विश्व का कल्याण हो! गोहत्या बंद हो ! गोमाता की जय हो ! हर हर महादेव ! ||जय श्री राम ||
इसके अगले भाग कृपया करके प्रकाशित करें। आभार
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