मंगलवार, 7 जुलाई 2015

आर्य मुदित - प्रलाप - भंजन

आर्य मुदित - प्रलाप - भंजन ---------->
__________________
१- "अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की एक ऐसी अद्भुत चिठ्ठी ।
जिसने कर डाली थी काशी से दयानन्द की पूरी छुट्टी ।।
भावार्थ - परम अवधूत श्री तैलंग स्वामी जी महाराज की चिठ्ठी ऐसी अद्भुत थी कि काशी में बिना अपने मन के अनुकूल निर्णय के एक पग भी काशी से न बढाने का हो -हल्ला मचाने वाले मतवाले दयानंद की काशी से छुट्टी कर डाली , पूरी छुट्टी शब्द का अभिप्राय यह है कि यद्यपि काशी के वेदज्ञ पंडितों ने दयानंद की वैचारिक छुट्टी कर दी थी तथापि व्यावहारिक धरातल पर केजरीवाल की भांति काशी में अनर्गल उत्पात मचाने वाले दयानंद की वृथा हो -हुंकारों से सभ्य समाज व्यथित हो रहा था , काशी नरेश एक सन्यासी होने के नाते दयानंद को कुछ कर नहीं सकते थे , ऐसे में काशी में दयानंद के
इस उत्पात को काशीपुरेश्वर सचल विश्वनाथ योगीराज ने स्वधाम में शान्ति बनाए रखने हेतु पूर्णतः समाप्त कर दिया !
२- दयानंद स्वयं न पचा पाया था तो बेचारे अंध - चेलों को पचेगी कहाँ ?
पिला दी अपने अवधूत बाबा ने दयानंद को ऐसी घुट्टी ।।

भावार्थ - स्वयं स्वामी दयानंद इस चिठ्ठी के ज्वर से जर्जरित होकर काशी से भाग खड़े हुए थे , ऐसे में उनके आधुनिक अन्धपरम्परा न्याय का सकुशल निर्वहन करने वाले समाजी चेलों को उसका वर्णन दग्ध करे तो आश्चर्य कैसा ? भंगोटा पिलाने में मशहूर काशीपति विश्वनाथ ने भंगेड़ी दयानंद (स्वामी दयानंद के भांग , हुक्का चिलम आदि पीने का वर्णन स्वयं उनकी जीवनी में है इसके लिए आप यू ट्यूब पर यह लिंक देखें -
https://www.youtube.com/watch?v=uWCPbDV2lUU )
को ऐसी घुट्टी पिलाई कि बेचारे दयानंद के दुरभिमान का स्वास्थ्य बिगड़ गया !

३- वाह हे योगी आपका घोटा ! जिसने उलट दिया दयानंद का लोटा ।
चिठ्ठी से आपकी दयानंद खोटा । भागा भी यूं , क्या खडाऊं क्या सोटा ।। _/\_
भावार्थ - हे योगेश्वर ! आपके ऐसे अद्भुत घोटे का क्या कहना ! जिसने मतवाले दयानंद का भी लोटा पलट दिया अर्थात् आपके लोटे का घोटा पीने के उपरांत दयानंद अपने लोटे को बिसर गया , यानी अपने आपको भूलकर बस आपका ही ध्यान उसके मनो मस्तिष्क पर चढ़ गया !!! फिर तो जहां देखे , सर्वत्र दयानंद को आप ही आप दिखाई देने लगे ! ! ऐसी मनोविदालिता में खोटे स्वभाव वाला वह दयानंद काशी से ऐसे भागा कि अपना सोटा और खडाऊं तक का भी ध्यान न रहा अर्थात् सर पर चप्पल रखकर औंधे भागने की कहावत चरितार्थ कर गया !
..बम बम भोले !! हर हर शंकर !!
........ जय योगीराज !!! हर हर महादेव !
_________________________
अथ आर्यमुदित -प्रलाप- भंजनम् ----------->
____________________
1 .श्री अजय सिन्ह द्वारा तैलंग स्वामी पर लिखित एक लेख 2010 में नागपुर की राष्ट्रधर्म मगज़ीन में छपा जिसमें यह नई हदीस उद्घाटित की गयी की जब स्वामीजी ने बनारस में शास्त्रार्थ किया उसके बाद तैलंग स्वामीजी ने उन्हंज़ एक पत्र भेजा जिसे पढकर वे वाराणसी छोड़ गये और उस पत्र में लिखा मात्र सिर्फ दयानंद जी व तैलंग जी को ही पता था।
प्रलाप - भंजन ----------->यह आपका "नई हदीस" कहना आपकी मनोव्यथामात्र है ।
2. इस लेख के लेखक अजय सिन्ह ने तैलंग स्वामी जी के लिए तो जी शब्द प्रयुक्त किया पर महान धर्मउद्धारक स्वामी दयानंद जी के लिए जी शब्द प्रयुक्त नहीं किया, न ही इस कथा का कोई संदर्भ ही बताया, इसीसे इनकी मंशा का अनुमान लगया जा सकता है।
प्रलाप - भंजन -----------> आपने लेख के लिए शुरुआत में ही " नयी हदीस " शब्द प्रयोग किया है , स्वयं आपकी मंशा स्पष्ट हो गयी है । और जो व्यक्ति भाग गया हो उसके लिए जी क्या लगाना ? जिसने भगाया उसके तेज को आदर देना सहज है । प्रायः शिष्यों की श्रवण परम्परा से ही सुनी आयी बहुत यथार्थता लोक में प्रमाणरूप से कथित हो जाती है । इस प्रकार के एक सामान्य उदाहरण के लिए देखिये धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के अद्भुत तेज के विषय में राजीव दीक्षित का यह वक्तव्य -
https://www.youtube.com/watch?v=x4HMJ0KbOIY
स्वामी तैलंग स्वामी जी की जीवनी में (यथा - "भारत के महान् योगी" उक्त पत्रिका जिसका आप स्वयं वर्णन कर रहे हैं इत्यादि ) से जुडी ये घटनाएं यदि आपको स्वीकृत नहीं होती हैं तो ये आपकी अपनी सोच है , इस पर हम क्या करें ? आपको प्रमाण नहीं लगती तो इसमें कौन क्या कर सकता है ? इतिहास तो इति ह एवं आसीत् (ऐसा हुआ था )-ऐसा वृद्धव्यवाहार से सुनकर ही प्रायः ज्ञात होता है । आपको इसमें श्रद्धा नहीं तो हम क्या करें ? आप अपना विधवा विलाप अपने ही आर्य उपनाम धारी वेद के स्वघोषित ठेकेदारों को सुनाइये ।
3. वह तथाकथित पत्र किस वर्ष स्वामीजी को तैलंग जी द्वारा भेजा गया यह भी उल्लिखित नहीं है, जबकि स्वामीजी जीवनकाल में बनारस 7 बार गये.
प्रलाप - भंजन -----------> यह पत्र सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) को काशी शास्त्रार्थ के तीसरे दिन भेजा गया था क्योंकि शास्त्रार्थ उसी वर्ष हुआ था , तभी स्वामी दयानंद भागे थे ऐसा कहा जाता है
4. लेखक स्वयं कहते है कि उस पत्र के बारे में केवल उन्ही दोनों को पता था तो फिर लेखक को इस बात की जानकारी कहाँ से हुई वह भी महर्षि दयानंद जी के नरवान के 127 वर्ष बाद???
प्रलाप - भंजन -----------> पत्र के बारे में का अर्थ यह भी हो सकता है कि पत्र के विषय के बारे में । जो पत्र ही कहो तो भी पत्र देने के पश्चात् हो सकता है तैलंग स्वामी ने बाद में किसी शिष्य को यह बताया हो ! इस पर जब आपको स्वयं कुछ ज्ञान नहीं तो आपका खंडन करना व्यर्थ है । आपके दयानंद अनुमान अनुमान में भारत के सभी प्रसिद्ध चमत्कारी मंदिरों पर कल्पनाएँ गढ़ गए कि वहां ये होगा , वहां ऐसा होगा , तब आप सत्यार्थ प्रकाश में प्रमाण नहीं खोजते !
5. काशी शास्त्रार्थ के सभी पंडितों की सूचि ज्ञात है पर शास्त्रार्थ के दस्तावेजों में कहीं भी तैलंग स्वामी जी का जिक्र नहीं आता। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने कहा-"महर्षि 7 बार काशी गये, हर बार खुली चुनौती दी पर वहन कोई नहीं था जो उनकी चुनौती स्वीकार करता।" अंतिम बार स्वामीजी 19 नवम्बर 1879 को काशी आए और 5 मई 1880 तक रहे, अंतिम काशी यात्रा में लगभग 6 महीने उन्होने काशीस्थ ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा, पर सनातन धर्म की रक्षा के लिए तथाकथित प्रतिबद्ध कोई भी उनसे शास्त्रार्थ को न आया। इतिहास इसका प्रमाण है की महर्षि ने लगातार चुनौती दी पर किसी में सामर्थ्य नहीं था की स्वीकार करे, 10 जनवरी 1880 मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि को स्वामीजी ने पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा "अब तक कोई भी पंडित शास्त्रार्थ को तैयार न हुआ है "
प्रलाप - भंजन -----------> तैलंग स्वामी क्यों शास्त्रार्थ किये ही न थे तो भला उनका नाम क्यों होगा ? उन्होंने तो एक शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानंद के अनर्गल उत्पात का एक चिठ्ठी से हर हर महादेव कर दिया था जिससे वे बोरिया बिस्तर पकड़ कर चम्पत भये !
6. एक बात और ध्यान देने योग्य यह की मुंशी इन्द्रमणि के पोते भागवत सहाय बैरिस्टर ने एक बार इस्लाम अपनाना चाहां पर न तो "सनातन धर्म के रक्षक?" और न "श्री तैलंग स्वामीजी" ने ही उन्हें रोकना चाहा, हाँ आख़िरकार दयानंद के सैनिकों ने ही पुनः उन्हें वैदिक धर्म में वापस लाया। क्या यहाँ पर " सनातन धर्म रक्षकों?" ने सनातन धर्म की अवहेलना न की??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई लेना देना नहीं , केवल प्रसंगेतर लेख बढा कर लोगों को भ्रमित करने के लिए आपने ये व्यर्थ कथा लिखी है ।
7. स्वामी दयानंद जी परिव्राजक थे, उन्होंने दक्षिण के कुछ भागों को छोडकर सम्पूर्ण भारत का प्रलापण किया था, इसके बावजूद वे काशी 7 बार गये अपने जीवनकाल में। आप महर्षि से ऐसी अपेक्षा फिर कैसे कर सकते हैं की वे हमेशा काशी में ही रहते?? फिर यह रुदाली गायन का क्या मतलब की-"काशी छोड़ भागे" ?? इस करूण क्रन्दन की जड़ें 1869 के शास्त्रार्थ में आपकी पराजय में छुपी हैं।।
प्रलाप - भंजन -----------> ये आपकी मनोव्यथा है , यह उस चिठ्ठी का ही प्रभाव था कि दयानंद ने काशी में कोई उत्पात नहीं किया । काशी से पलायन करने के उपरांत स्वयं काशी नरेश ने उनको दयावश बुलाया था क्योंकि उन्होंने कठोर शब्द "धूर्त" बोला था और दयानंद जैसे भी थे थे तो संन्यासी ही , और उनको सम्मान दिया- ऐसा आपका समाजी इतिहास बोलता है कि काशी नरेश उनको बुलाये । जो काशी नरेश उनको ऐसे दयावश बुला सकते हैं क्या वो उनके लिए शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं करा सकते थे ? पर बेचारे दयानंद किस मुंह से हिम्मत करते ? काशी शास्त्रार्थ के बाद काशी में किसी भी प्रकार के किसी भी शास्त्रार्थ का कहीं कोई वर्णन नहीं है अपितु "दयानंद पराभूति " तथा " दुर्जनमुखमर्दन " जैसे भारतेंदु हरीशचंद्र जैसे प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों आदी की लेखनी के तत्कालीन प्रख्यात ग्रंथों का वर्णन मिलता है , इससे स्पष्ट है कि उस समय दयानंद का काशी में क्या चरित्र था !
8. आप लोगों को "सनातन धर्म की अवहेलना" सिर्फ मूर्तिपूजा के खंडन में नजर क्यों आती है?? क्यों आपको स्वामीजी के महान कार्य नहीं दीखते यथा- ब्रह्मचर्य का प्रचार, वेदों का प्रचार, आर्ष साहित्य का प्रचार, समाज सुधर, राष्ट्रवाद का आव्हान, राजनैतिक स्वतन्त्रता, गुरुकुल व्यवस्था का कायाकल्प, योग का प्रचार, 16 संस्कारों व यज्ञ का प्रचार, संस्कृत का प्रचार, गौरक्षा के लिए महान कार्य, दलित एवं नारी उद्धार आदि???? क्या सनातन धर्म केवल और केवल मूर्तिपूजा का विषय है? इससे आगे कुछ नहीं??
प्रलाप - भंजन -----------> इसका अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के " लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
9. क्यों "सनातन धर्म की अवहेलना" आप महर्षि में ही देखते हो?, श्रद्धाराम फिल्लौरी जो बाइबिल के पंजाबी अनुवादक थे, पुराणों को वे भी व्यासकृत न मानते थे, और उनकी लिखी आरती "ॐ जय जगदीश हरे" आप सब मन्दिरों में गाते हैं पर तब सनातन धर्म की अवहेलना नहीं होती? श्रद्धाराम फिल्लौरी दयानंद जी को दुश्मन मानता था, यहाँ तक की उसने उन्हें झर देने का षड्यंत्र रचा, उसकी जीवनी श्रद्धा प्रकाश में अनेकों बातें दयानंद जी के खिलाफ लिखी हैं। पर उसने भी तैलंग जी के स्वामी जी को पत्र की बात को कहीं उल्लिखित नहीं किया। जबकि उसने अपने इन सनातन धर्म रक्षार्थ अहंकार पूर्ण कार्यों के प्रति चिंता व शोक प्रकट किया ।
प्रलाप - भंजन -----------> कोई भी व्यक्ति अपने पास विद्यमान जानकारियों के आधार पर ही बोलता है , अब यदि कहा जाय कि रामपाल (एक प्रसिद्ध दयानंद द्रोही )
यदि श्रद्धाराम फिल्लौरी की बात नहीं किया तो क्या श्रद्धाराम फिल्लौरी का विरोध असत्य हो गया ????? अतः यह मात्र आपका प्रलाप है ।
प्रसिद्ध दयानंद द्रोही , कबीरपंथी रामपाल के दर्शन यहाँ करें -
https://www.youtube.com/watch?v=X1vW6zRjtJs
10. श्री तैलंग स्वामीजी का नाम लेकर स्वामी दयानंद जी को बदनाम किया जा रहा है जबकि। उस समय के 'सनातन धर्म के शीर्ष रक्षक' श्रद्धाराम फिल्लोरी अपने अंतिम समय में इतने शर्मिंदा व शोकाकुल थे की स्वामीजी को लम्बा पत्र लिखकर उनके प्रति अपने सम्मान व उपासना के भाव को उजागर किया।
प्रलाप - भंजन -----------> श्रद्धाराम फिल्लोरी अगर शर्मिन्दा होता है तो इससे चिठ्ठी घटना को क्या लेना देना ? कबीरपंथी रामपाल का उदाहरण आपको ऊपर के वक्तव्य में दर्शा दिया गया है ।
11. श्री पंडित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जिन्होंने महर्षि का वृहद चरित्र लिखा है वे आर्यसमाज के सदस्य न थे पर स्वामीजी के चरित्र व योगदान से इतने प्रभावीत थे की अपना सम्पूर्ण जीवन स्वामीजी के जीवन इतिहास को संकलित करने व उसे आत्मकथा बनाने में ही लगा दिया । काशी से उनका सम्बन्ध भी जगजाहिर है परन्तु उनके लेखन में भी कहीं भी श्री तैलंग स्वामी जी व इस तथाकथित पत्र का जिक्र नहीं है
प्रलाप - भंजन -----------> समाजी लेखकों का क्या है ? आर्य समाज के इतिहास पर ही परस्पर इतना विवाद है कि आपके ही "राजेन्द्र जिज्ञासु " को अभी अभी एक ग्रन्थ निकालना पडा है , नाम है - इतिहास प्रदूषण, स्वयं आप समाजियों के अनुसार यह ग्रन्थ आपके ही भवानी लाल भारतीय के हदीसी कारनामों पर लिखा गया है । लेखक प्रो राजेंद्र जिज्ञासु , प्रकाशक : पण्डित लेखराम वैदिक
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10200461879347650&set=a.1957054024155.53969.1776872054&type=1&theater
12. इलाहबाद के प्रख्यात पंडित श्री शिवराम पण्डे काशी में दयानन्द जी के बहुत निकटस्थ रहे, उन्होंने काशी के पंडितों पर स्वामी दयानंद जी के प्रभाव का घन वर्णन किया है पर उन तक ने कहीं भी इस पत्र व श्री तैलंग जी स्वामी का ज़िक्र नहीं किया है।
प्रलाप - भंजन -----------> आर्य समाजी इतिहासकार भला क्यों करने लगे वर्णन ? आपके ही इन इतिहासकारों की यथार्थता भवानी लाल के उदाहरण से ऊपर सप्रमाण दर्शा दी गयी है ।
13. स्वामीजी ने स्वयं कभी ऐसे प्रभावशाली पुरुष के बारे में नहीं बताया जिनके एक पत्र के कारण उन्होंने वाराणसी छोड़ दी हो। पता नहीं राष्ट्र धर्म के लेखक को यह जानकारी कौनसे ठंडे बसते से मिली है ।
प्रलाप - भंजन -----------> स्वामी दयानंद भला क्यों उस चिठ्ठी की कथा खुलेआम बताने लगे ? आपके तर्कों की भी हद है !
14. दयानंद जी के जीवनकाल में जब पुणे से श्री जोशी जी एक सभा में पधारे तब श्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने काशी के पंडितों को लताड़ा था, यह काशी के समाचार पत्रों में भी छपा था। यही भारतेंदु जी शुरुआत में सनातन धर्म रक्षार्थ? दयानंद के विरुद्ध थे, पर बाद में स्वामी दयानंद जी की ओर झुक गये थे। क्या पौराणिक बन्धु उत्तर देंगे ऐसा क्यों हुआ??
प्रलाप - भंजन -----------> चोर की भी जब हद से अधिक कम्बल परेड हो जाती है तो लोग दया दिखाकर उसका पक्ष लेना शुरू करते हैं , यदि किसी कविहृदय में किसी भगवाधारी संन्यासी की चतुर्विध दुर्दशा पर कुछ सहानुभूति का बीज उत्पन्न हो गया हो तो किमाश्चर्यम् ?
15. सत्य यह है की आप जैसे सनातन धर्मी स्वामी दयानंद का विरोध करने को घोर सनातन धर्म समझते हो। यही आपका सनातन धर्म है। यहाँ तक की श्री आचार्य धर्मेन्द्र जी भी आप जैसे पंडितों की इस रीति से प्रसन्न नहीं हैं, इसलिए यहाँ तक कहते हैं की पंडित कालूराम, पंडित माधवाचार्य, पंडित गिरधर शर्मा और पंडित कृष्ण शास्त्री आदि ने कभी भी अंधविश्वासों का विरोध नहीं किया। परन्तु स्वामी दयानंद ने ऐसे रोमांचकारी कार्यों को सदैव अपना धार्मिक कर्तव्य समझा।
प्रलाप - भंजन -----------> इस वक्तव्य का भी अवधूत तैलंग स्वामी जी की चिठ्ठी विषय से कोई सम्बन्ध नहीं । अतः ऐसे व्यर्थ के "लेख बढाओ , प्रलाप फैलाओ" के प्रसंगेतर विषयों का उत्तर देना हम आवश्यक नहीं समझते !
16. पूर्व में दयानंद जी को बदनाम करने हेतु किताबें छपती रहीं हैं जिनमें 'दयानंद छल कपट दर्पण' आदि मुख्य हैं, इसका लिखने वाला था जियालाल = जिसने स्वयं स्वीकार किया था की महर्षि दयानंद धर्म रक्षक थे। ऐसी अनेकों किताबे अन्यों ने लिखीं, मुसलमानों और ईसाईयों समेत परन्तु उनमें भी कही भी इस मिथ्या आरोप का लेश भी नहीं है ।
प्रलाप - भंजन -----------> जियालाल जब स्वयं दयानंद को छलिया और कपटी बता रहे हैं तो स्पष्ट है कि दयानंद के जीवन में छल कपट तो अवश्य था , अच्छाई के अंश किसमें नहीं होते ? दयानंद की अच्छाई के कुछेक न्यूनांश यदि जियालाल ने स्वीकृत किये तो इससे दयानंद के कपट और छल के महा भयंकर गहरे दाग नहीं छिप गए !!!
मुदित आर्य - अतः मेरा दोनों ही पक्षों से निवेदन है की इस हिन्दू कुल कलह को आज इस पोस्ट के साथ समाप्त कर के धर्म पथ पर उत्कर्ष के कदम उठाए जाएँ।
प्रलाप - भंजन -----------> वाह रे ! पूरी पोस्ट पर स्वघोषित आर्य उपनाम के अनुरूप दयानंद का अनर्गल व्यर्थ महिमागान , और अंत में दोनों पक्षों को नसीहत के नाम पर अपना भोला भगत बन गए !!! पलायनवादी दयानंद और वैदिक -धर्मद्रोही एवं कपटी आर्य - समाज के प्रचार का कोई और शातिराना तरीका ढूंढिए !!
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
।। जय श्री राम ।।

मनु-स्मृति

मनु-स्मृति
____________
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
।। जय श्री राम ।।

महाभाष्ये जन्मनावर्णवाद: (सामाजिक-मत-विखण्डनम्) -

महाभाष्ये जन्मनावर्णवाद: (सामाजिक-मत-विखण्डनम्) -
______________________________
यदुक्तं महाभाष्येsपि गुणशब्दा उक्तास्तस्माद् गुणकृतमेवब्राह्मण्यादिकमिति तदेतन्महाभाष्याद्यज्ञानविजृम्भितम् | तपः श्रुतञ्च योनिश्चेति वचनविरोधात् | अथवा छद्मनामूढजनप्रतारणाय तपः श्रुतं चोक्त्वा योनिश्चेति नोक्तम् | तथाहि नञ् (पा०सू० २/२/६ ) इत्यत्र किं प्रधानोsयं समास इत्युपक्रान्तः |
अत्र प्रदीपे - ‘ इहा ब्राह्मणादिना क्षत्रियादेरभिधानं लोके दृश्यते | तत्र प्रक्रियागतगुणदोषनिरूपणाय प्रश्नः | यदा जातौ ब्राह्मणशब्दो वर्तते अविद्यमानं ब्राह्मण्यं यस्य सोsब्राह्मणः क्षत्रियादिस्तदान्यपदार्थः प्रधानम् | एवं अन्यपदपूर्वपदोत्तरपदार्थप्राधान्यपक्षानुत्थाप्यानुपपत्तय उक्ताः | उत्तरपदार्थ प्राधान्यपक्षे पुनरपि अब्राह्मणमानयेत्युक्ते ब्राह्मणमात्रस्यानयनं प्राप्नोतीत्याक्षेपे तत्र राजपुरुषमानयेत्युक्ते पुरुषमात्रस्य कुतो नानयनमिति प्रतिक्षेपे “ यथा तत्र विशेषोsभ्युपेयते तथैवात्रापि नञ्विशेषको ब्राह्मणः प्रयुक्त इति तस्यैवानयनं न तु ब्राह्मणमात्रास्येति समाहितम् |
“कः पुनरसौ इति” पृष्टे निवृत्तिपदार्थकः इति समाहितमेवं प्रश्नप्रतिवचनपरम्परयाsन्यदपि बहूक्त्वा “पश्चादर्थप्रत्यानयनाय शब्दः प्रयुज्यते | स चेन्निवृत्तः किमर्थं प्रयुज्यत” इत्युक्तम् | ततः प्रतिषेधविषयप्रदर्शनाय बुद्ध्या ब्राह्मणार्थं निरूप्य तस्य क्षत्रियादौ मुख्यसत्ताविरहप्रतिपादनाय नञ्सहितो ब्राह्मणशब्द: प्रयुक्त इत्युक्तम् |
यस्यैव गुणस्य स्वाभाविकी निवृत्तिः क्षत्रियादौ तस्यैवासौ नञा द्योत्यते | अवशिष्टानां गुणानामर्थात्सद्भावो गम्यते | अस्मिन् प्रसङ्गे महाभाष्यकार आह – “ सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते | ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्र इति |
अत्र प्रदीपोक्तरीत्या गुणशब्दे धर्ममात्रं पराश्रयमुच्यते | अतएव योनिशब्दितं जन्मापि गुणसामुदायान्तर्गतम् | तेन नात्र जन्मनिरपेक्षं मुख्यं ब्राह्मण्यमुक्तम् | तथा च महाभाष्यकृतैवोद्धृतं स्मृतिशास्त्रम् -
तपः श्रुतञ्च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणकारणम् |
तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः || (-महाभाष्य २/२/६ )
अत्र प्रदीपः - तपः चान्द्रायणादिकर्म, श्रुतं वेदवेदाङ्गादीनामध्ययनम् , योनिः ब्राह्मणाद् ब्राह्मण्यां जन्म ब्राह्मणकारणम् ब्राह्मणव्यपदेशस्येतन्निमित्तम् | गुणसमुदायाभावेsपि तदेकदेशे प्रयोगदर्शनादाह –
तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः || इति ||
अस्तु,
हर हर महादेव !
|| जय श्री राम ||

“स्वामी दयानन्द के काशी – शास्त्रार्थ की पोल – पट्टी (सप्रमाण ) “

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् , त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीँ, विहन्तुं व्याक्रोशीँ विदधत इहैके जडधियः ॥ _/\_

प्रिय  मित्रों  !  


यद्यपि  स्वामी  दयानन्द    के  काशी-शास्त्रार्थ  की  यथार्थता    से   समस्त प्रौढ़   पौराणिक  जगत्   सर्वथा   सुपरिचित  ही  है  कि  कैसे  काशी   की  प्रतिभावान् पंडितमण्डली  ने   एक  -एक  करके  स्वामी  दयानंद    को   छब्बे  जी  से  दूबे  जी   वाली   कहावत का  पात्र  सिद्ध  किया    था   ,    एक    के  बाद  एक  काशी  के   पण्डितों  ने  स्वामी  दयानंद  को  धुल  चटाई   तथापि  कुछ   आर्य -समाजी  इसे  तोड़मरोड़  कर   और  इसकी  मौलिकता  को    अपने  मनोवांछित  शब्दजाल  से  ढक  कर   पाठक  के  सम्मुख    प्रस्तुत  करके  अपनी  मनोव्यथा  हल्की  करने  का   असफल    प्रयास  करते  रहते  हैं | 
ऐसा  ही  एक  उदाहरण  इस  अंतर्जाल  के  माध्यम  में  देखने  को  मिला  है  ,  यथा  –
http://www.aryamantavya.in/kashi-debate-of-swami-dayanand/ 


इन  सब  ओछी  छल  -छद्म – धूर्तताओं  से    यथार्थावेत्ता  विज्ञ  पौराणिक  जगत् को  तो  कोई  लेना-देना  नहीं  रहता  किन्तु  सत्य -सनातन-वैदिक-हिन्दू – धर्म  पर  आस्थान्वित  मृदुमेधा  वाले   नव जिज्ञासुओं  में  कदाचित्  भ्रम  की  स्थिति  हो  जाती  है  ,  प्रायः  लोक  में  भी  देखा  जाता  है  कि  बार-बार   उद्घोष  करके   बोलने  से  असत्य  भी  अलातचक्र  की  भांति   सत्य  सा  प्रतीत  होने  लगता  है  तद्वत  |इसीलिये  इस  सम्पूर्ण  मिथ्या  प्रलापों  और  आक्षेपों    का   हम  सप्रमाण   भ्रम –  भंजन  करेंगे  |  इसके लिए  हमने  ये  निर्णय  किया  है  कि  हम  काशी  शास्त्रार्थ  का  पौराणिक – संस्करण  न  उठाकर  समाजी – संस्करण  (  संवत्  १९३७  (सन् १८८०  ) में  वैदिक  यन्त्रालय  ,  काशी  से  प्रकाशित    निर्वाण  शताब्दी  संस्करण  )  के    मान्य  संवादों  को    आधार  बनाकर      ही  इनका  भ्रमोच्छेद  करेंगे  !  


यद्यपि  इस  संस्करण  में    समाजी  –  मण्डली ने     सर्वत्र    काट-छांट  कर    जगह  -जगह  अपने  मनोवांछित  शब्दों  से   व्याख्याओं  की  टिप्पणियाँ    आदि  डाल  -डाल  कर  दिन  को  रात  सिद्ध  करने  का   खूब  प्रयास  किया  है,  शास्त्रार्थ   प्रदर्शन   से  पूर्व   एक  लम्बी  भूमिका   में  अपना  विधवा-  विलाप ,    स्वामी  दयानंद का  मिथ्या  यशोगान   लिख  डाला    है    किन्तु  वेदमन्त्र  की  वो  सूक्ति  सुप्रसिद्ध  ही  है  कि    ”  सत्यमेव  जयते  नानृतम् ”  तात्पर्य  यह  है  कि    अनृत (  असत्य  )  चाहे    कितना  ही  प्रयास  कर  ले  किन्तु  सत्य  का  उत्कर्ष   तो  फिर  भी   हो  ही   जाता  है  |   यही  इन  समाजियों  के  साथ  भी  हुआ  है  ,  ये  बेचारे   चाह  कर  भी  अपने  स्वामी  दयानंद  का   पंगु  शास्त्र  ज्ञान  ,  धूर्तता  ,  छल  -प्रपंच एवं   येन -केन -प्रकारेण  प्रसिद्धः  पुरुषो  भवेत्  के  असफल  प्रयासों  को  इतनी  धांधलियों  के  उपरान्त  भी   छिपा    नहीं   पाए  हैं  |   

एक  सामान्य  सा  निष्पक्ष  विचारक  भी आसानी से  ये  समझ  सकता  है  कि जब  काशी – शास्त्रार्थ  में  स्वामी  दयानंद  का  ही  पलड़ा  सर्वत्र    भारी   रहा  है    तो  तुम  समाजी  लोग  अपने  काशी – शास्त्रार्थ  संबंधी  पुस्तकों या  लेखों  में   उस  पर  तरह  -तरह  की  व्याख्याएं ,    लम्बी  -लम्बी   टिप्पणियाँ   आदि  क्यों  घुसेड़ते  हो  ?  सीधा  सीधा  केवल  संवाद  मात्र  क्यों  नहीं  प्रस्तुत  कर  देते  ?   पाठक   उस  संवाद  को   पढ़कर   अपने  आप  ही    समझ  जाएगा  कि  कौन  सा  पक्ष  मजबूत  है  और  कौन  सा  शिथिल  !!  क्यों  इतनी  लम्बी – लम्बी  टिप्पणियां    ,  यहाँ  पर  स्वामी  जी  का  अभिप्राय  ये  है  ,  ये  सो  लिखते  हो  ?? 

  तुम्हारी   चोर  की  दाड़ी  में  तिनका तो      तुम्हारी  ये  शास्त्रार्थ – संवाद   में  नीचे  ऊपर  दायें  बाएं  लिखी  संवाद  से   भी   दोगुनी   टिप्पणियाँ  अथवा  व्याख्याएं   स्वयं  ही  साबित  कर  देती  हैं  | किं बहुना  ? 

 खैर  ,  पुनः  देखिये  आगे   यथार्थता   –

 

यह  शास्त्रार्थ  कार्तिक  सुदी  १२  सं०  १९२६  (तदनुसार  सन् १८६९ )  ,  मंगलवार  को  शुरू  हुआ  ,  शास्त्रार्थ  शुरू  होने  से  पूर्व  ही    अपने  खोखले  वेदज्ञान    के  घमण्ड  में  चूर    स्वामी  दयानंद  ने  काशीनरेश    से    यह  पूछा   कि  क्या  पण्डित  मण्डली  पुस्तक  लाई  है  या  नहीं  ? (वेदानां  पुस्तकान्यानीतानि  न  वा  ? ) ,  तब  काशी  के  पंडितों  की  रग-रग  से  सुपरिचित    काशीनरेश  ने   कहा  कि  वेद  तो   सम्पूर्ण  पंडितों  को  कंठस्थ  है  ,  फिर भला  पुस्तकों  का  क्या  प्रयोजन  है  ?     (वेदाः  पण्डितानां कंठस्थाः  सन्ति ,  किं  प्रयोजनं  पुस्ताकानामिति ?)  जब  काशी    के  पण्डितों  की  विद्वत्ता  को    स्वामी  दयानंद  ने  सुना  तो  खिसिया  कर  बोले  कि    पुस्तक  के  बिना  पूर्वापर  प्रकरण  का   ठीक  से   विचार   नहीं  हो  सकता   |  (पुस्तकैर्विना  पूर्वापरप्रकरणस्य यथावद्विचारस्तु  न  भवति  )    अब  आप  विचारक  महानुभाव  ज़रा  स्वामी  दयानन्द  के  इस  वक्तव्य  पर  विचार  कीजिये  ,  भला  ,  जब  स्वामी  दयानंद  स्वयं  पुस्तक  लेकर  आये  थे   तो  उनको  पूर्वापर   प्रकरण  के  लिए  काशी  के  पंडितों  की  पुस्तक  की  आवश्यकता  क्यों   पड़    गयी  ?  क्या  अपनी  पुस्तक  से  पूर्वापर  प्रकरण  नहीं  देख  सकते  थे  ?    और  यदि  जब  स्वयं  ही  पुस्तक  नहीं  लेकर  आये  तो  किस  मुंह  से  प्रतिपक्ष  से  पुस्तक   लाने  की  अपेक्षा  कर    रहे  हैं  ?  

 कुल मिलाकर   वास्तविकता  यह  थी  कि    स्वामी  दयानंद  को  लगता  था  कि  काशी  के  पंडित  भी  उनकी  ही  तरह  से     बिना  गाँठ  के  पंसारी  होंगे  ,  जिनको  येन  -केन  प्रकारेण  छल  छद्मता  आदि  कूटनीतिक  प्रयोग  से   पराजित  कर  सारे  सनातन  धर्म  पर  अपना  एकछत्र   प्रभुत्व  जता  लूंगा  ,  किन्तु  जब  काशीनरेश  के  मुख  से  सुना  कि  काशी  के  पंडित  तो    वेदों  को  कंठ  में  लिए  रहते   हैं  तो  बेचारे  दयानंद  की  आशा  हताशा  में बदल  गयी  ,  जिसे  छुपाने  के  लिए  स्वामी  दयानन्द  ने पूर्वापरप्रकरण का  कुतर्क  प्रस्तुत  किया |  

(स्वामी  दयानंद  का  यह  पुस्तक  वाला  पोप  – प्रपंच     आगे    शास्त्रार्थ   के  मध्य  में  आपको   और  अधिक     सुस्पष्ट  हो  जाएगा  ,  जब  ये  अपने  ही    जाल  में  फंस  कर   अपने   खोखले  वेदज्ञान  के  कारण   विद्वानों  से  वेद   की   पुस्तक   मागेंगे     ,  देखिएगा  आगे सप्रमाण    )|   


जब  स्वामी  दयानन्द  ये  समझ  गए  कि  यहाँ   वेद  की   पुस्तक  कोई  पंडित  नहीं  लाने  वाला  है,  यहाँ  तो सबके  कंठ   में  वेद  बसे  हैं    तो उनके  सामने  कहीं  मेरी  पोल  न  खुल  जाए  इस  भय  से    बेचारे  स्वामी दयानंद हताशा  छिपाकर  बोले  कि  कोई  बात  नहीं  अगर  पुस्तक  नहीं  लाते  तो  (अस्तु तावत्    पुस्तकानि   नानीतानि | ) 

( वाह  रे  स्वामी  दयानंद  !  पहले  स्वयं  ही   पूर्वापरप्रकरण  दर्शन  की  अनिवार्यता   हवाला  देकर  पुस्तक  मंगवाओ  ,  फिर  स्वयं    ही  कहो  कि  कोई  बात  नहीं  ,  काशी  नरेश  से  पण्डितों  की  विद्वत्ता  का  परिचय  सुनकर  तो  शुरुआत  में  ही   स्वामी  दयानन्द  के  होश  ढीले  हो  गए  !  )


अब शास्त्रार्थ  शुरू  हुआ  –  स्वामी  दयानन्द  ने   पहले  ही  स्पष्ट  कर  दिया  था  कि  मैं  एक  से  अधिक  लोग  होने  पर    प्रश्नों  का   उत्तर  नहीं  दूंगा  , तो  रघुनाथ  प्रसाद  कोतवाल    ने ये  नियम  किया  कि  स्वामी  जी  से  एक  -एक  करके  पंडित  विचार  करें  |

  (तदा  पण्डित रघुनाथप्रसादकोटपालेन नियमः  कृतो  दयानन्दस्वामिना   सहैकैकः  पण्डितो  वदतु  न  तु  युगपदिति |  )

इस  नियम  के  ही  आधार  पर  सबसे  पहले  पंडित  श्री ताराचरण  भट्टाचार्य  “तर्करत्न”   स्वामी  दयानंद  के  सम्मुख  विचार  हेतु  प्रस्तुत  हुए  | 

 (  यहाँ  पर  यह  स्पष्ट  है  कि  आर्य  समाजी  जो  बोलते  हैं  कि  काशीशास्त्रार्थ  में  काशी    के  पंडित  एक  साथ  भीड़  बनाकर    स्वामी  दयानंद  से  शास्त्रार्थ  के  नाम  पर   उलझे   थे  ,  वह  इन  धूर्त  समाजियों  का  काशी  के  पण्डितों  के  प्रति  अपना  व्यक्तिगत  द्वेषमात्र  है |  जबकि  यथार्थता  यह  थी  कि  एक  एक  करके  सबने दयानंद   का  झूठापन  और  उनकी    धूर्तता   को  सिद्ध  किया  था    ) 

 


अस्तु  ,  अब  आगे  सुनिए   स्वामी   दयानन्द  को धूल   चटाने  वाला प्रामाणिक     रोचक काशी – शास्त्रार्थ – संवाद   –

(……शेष  क्रमशः  ) |


धर्म  की  जय  हो  !  अधर्म  का  नाश  हो  !प्राणियों  में सद्भावना  हो  ! विश्व  का  कल्याण  हो! गोहत्या  बंद  हो ! गोमाता  की  जय  हो  ! हर  हर  महादेव  !  ||जय  श्री  राम  ||

वेदार्थपारिजात – खण्ड ०२

वेदार्थपारिजात  का  द्वितीय  खंड  आप  सभी के  सम्मुख  प्रस्तुत  करते  हुए  अपार  हर्ष  हो  रहा  है  , यह  खंड  जहां  समस्त  विधर्मियों  ,  अधर्मियों  आदि  के  दुरभिमान  को  खंड  खंड  कर  देगा  ,  वही  सत्य -सनातन-वैदिक   धर्म  अनुयायियों  को  अथाह  रूप  से   प्रमुदित  करेगा  ,    ऐसा  विश्वास  है |
।।श्री धर्मसम्राट्-स्तवनम्।।
आदित्यो-निजतेजसा हिमकर-स्तापापनोदेन वै,  भौमः शत्रुविदारणेन-सततं सौम्यश्च ज्ञानाकरैः।
वाण्या देवगुरुःकविःसुतपसा सौरिश्च सत्येन यः, इत्थं सर्वविधैःग्रहैः विलसितःश्रीपाणिपात्रो यतिः।।१।।
स्वकीय तेजस्विता से जो सूर्य,मानव मन के संतापों को निश्चित दूर करने में जो चन्द्र,शास्त्र विरोधियों के  अभिमतों को विदीर्ण करने में (सेनापतित्वात्)भौम,ज्ञान संपदा में बुध,शास्त्र पूत वक्तृता में देवगुरु वृहस्पति,तपस्या में कविवर शुक्राचार्य,सत्य भाषण एवं न्यायप्रियता में शनिदेव,के समान हैं,ऐसे सर्वविध ग्रहों के तेज से सुशोभित पूज्य श्री करपात्री जी महाराज का दिव्य स्वरूप है।१।।
भक्त्या-भूषित-मानसं यतिवरं वैराग्य-वोधाश्रयं,ज्ञानाकाश-विभासकं-पटुतमं विज्ञान-भा-भासुरम्।
सिद्धान्त-प्रतिपादने प्रतिपलं संरक्षणे तत्परं, वन्दे ज्ञानदिवाकरं हरिहरानन्दं सदा श्रद्धया।।२।।
भक्ति से भूषित मन वाले,ज्ञान-वैराग्य से संपन्न,ज्ञानाकाश को प्रकाशित करने वाले,विज्ञान के तेज से भासित अत्यन्त दक्ष,प्रतिपल सिद्धान्त के प्रतिपादन एवं संरक्षण में तत्पर,ज्ञानदिवाकर यतिश्रेष्ठ पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती जी महाराज को में सदा श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं।।२।।
यो दृष्टवा भवसागरे निपतितं मोहान्धकारे जगत्, अज्ञाना-वृतमानसं विचलितं पाखण्ड पंकेरतम्।
कारुण्येन समागतो नरवरे तद्रक्षितुं यः स्वयं, पूज्यो भावभरैःनृभिःप्रतिदिनं श्रीपाणिपात्रो यतिः।।३।।
अज्ञान से घिरे हुए,अतएव विचलित हो पाखण्ड रूपी कीचङ से आवृत,प्राणियों को मोहान्धकार रूपी भवसागर में पङे हुए देखकर करुणा से द्रवीभूत हो इस जगत की रक्षा के लिये,जो स्वयं १नरवर में आये,ऐसे पूज्य श्री करपात्री जी महाराज समस्त प्राणियों के द्वारा भावपूर्वक नित्य पूजनीय(प्रणम्य) हैं।।
१ -यद्यपि पूज्य श्री की अवतरण स्थली भटनी प्रतापगढ यूपी है,तदपि यहां नरवर को वरीयता देने का तात्पर्य है,जन्म के दो प्रकार शास्त्रों में कहे गये हैं, १ -विन्दु २ -नाद,(द्विधा वंशो विद्यया जन्मना च)पूज्य श्री का पावन यश विन्दु कुल की अपेक्षा नाद (विद्या,ज्ञान)कुल के कारण ही है,नरवर पूज्य श्री का विद्याकुल गुरुकुल है।
आर्यभ्रान्ति निवारणैक-कुशलो लोकस्य संरक्षकः, शास्त्रार्थ-प्रतिपादने च निरतो वादादि संयोजने।
जात्या वर्णविधिर्न कर्मविहितः शास्त्रेष्वियानेव वाक्, इत्याख्यैः सुवचैः प्रतिष्ठितयशाः श्रीपाणिपात्रो यतिः।।४।।
तथाकथित आर्य जनों के विचारों में आयी भ्रान्तियों के निवारण में कुशल,लोक के संरक्षक,शास्त्रों के परमपरागत समुचित अर्थ का प्रतिपादन करने तथा(वादे वादे जायते तत्व बोधः इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये) शास्त्रीय पक्ष का निर्धारण करने के लिये विचार गोष्ठी आयोजित करने में निरत,वर्ण व्यवस्था जन्म से होती है न कि कर्म से शास्त्रों में यही सिद्धान्त स्पष्टतया  सर्वथा वर्णित है,इत्यादि सम्यक मतों के प्रतिपादन से लब्ध प्रतिष्ठ पूज्य श्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।
संसारानल-तप्तमानसवतां कोसौ सुधानिर्झरः, भक्तानां-भगवानपूर्व-रुचिरो-वात्सल्य-कल्पद्रुमः।
मोहग्राहग्रहीतमानसवतां मोक्षार्थ विद्यामणिः, सर्वाशापरिपूरको हरिहरो श्रीपाणिपात्रोयतिः।।५।।
संसाराग्नि में झुलसते प्राणियों को शीतलता प्रदान करने के लिये ये सुधा निर्झर के रूप में कौन हैं,भक्तोंके लिये अपूर्व मनोहर सर्वाशापरिपूरक भगवान,महामोह रूपी ग्राह के द्वारा जकङे हुये मन वाले प्राणियों की मुक्ति के लिये जो विद्या मणि हैं,(ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः) वात्सलता के कल्पतरु श्रीहरिहरानन्द सरस्वती स्वामीश्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।।५।।
शैवानां-शिवतत्वनिष्ठ-रुचिरःसीताधवो राघवः, शाक्तानां समतामयश्च मधुहा राधाधवोमाधवः।
विष्णौ भक्तिमतां सतां शिवकरःश्रीवैष्णवःशंकरः, नोमेशो न हरी असौ हरिहरःसाक्षाद्यतीन्द्राधिराट् ।। ६ ।।
मानो शैवों में श्रेष्ठ शिवतत्व निष्ठ भगवतीसीता के स्वामी श्रीराम हैं,अथवा शाक्तों में समत्वभाव रखने वाले,मधुहन्ता राधावर श्रीकृष्ण हैं,या भगवान विष्णु में भक्ति भाव रखने वाले,सज्जनों का कल्याण करने वाले,श्रीवैष्णव देवाधिदेव महादेव ही हैं,अरे नहीं,ये न तो उमापति शिव हैं, न राम कृष्ण हैं, ये तो साक्षात् यतीश्वरो के भी अधिनायक पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी श्री करपात्री जी महाराज हैं।
(१ हरिश्च हरिश्च इति हरी-श्रीराम कृष्णौ,)
धर्मस्य प्रगतिर्भवेदवनतिर्भूयादधर्मस्य च,सद्भावो मनुजेषु वै खलु सदा लोकस्य भद्रं भबेत्।
गोमातुर्विजयोभवेदथ च गोहत्या निरुद्धा भवेत्,इत्थं घोषकरः सदा विजयते योगीन्द्रवृन्दाधिराट्।।७ ।।
धर्म की जय हो,अधर्म का नाश हो,प्राणियों में सदद्भावना हो,विश्व का कल्याण हो,गौ माता की जय हो,गो हत्या बन्द हो,इस प्रकार की घोषणाओं से जनमानस के हृदय में दिव्य भाव का जागरण करने वाले,योगीकुल के अधिपति पूज्य श्री करपात्री जी महाराज की सदा जय हो,
श्रीविद्यासमुपासकं गुरुवरं यज्ञात्मकं सिद्धिदं,धर्माधर्मविवेचकं श्रुतिपरं शान्तं परं दैवतम्।
सिद्धान्तप्रतिमा-सनातनवपुः श्रीशंकरं नूतनं,पद्यैरष्टभिरद्य नौमि वचसा श्रीपाणिपात्रं यतिम्।।८।।
श्रीविद्या के समुपासक, यज्ञस्वरूप,वेद शास्त्र परायण,धर्म एवं अधर्म के समर्थ व्याख्याता,सिद्धिप्रदान करने वाले परम दैव,सनातन धर्म के सिद्धान्तों के साक्षात् विग्रह,शास्वत सत्ता वाले अभिनव शंकर,श्रीकरपात्री जी महाराज को अष्ट पद्य प्रसूनात्मक वाणी के द्वारा आज नमन करते हैं,।
अष्टपाशनिराशाय,सर्वेष्टसाधनायच।                                                                                                                                                    अन्तःकरण-शुद्ध्यर्थं-मयाकारि तदष्टकम्।।९ ।।
अष्ट पाशों के विनाश के लिये, सर्व इष्ट सिद्धि के लिये,तथा अन्तःकरण की शुद्धि के लिये मेरे द्वारा ये अष्टक रचा गया ।
( साभार : श्रीगुरुकृपाधनसम्पन्नः त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्यः )
वेदार्थपारिजात ,  खण्ड   -०२
vedartha parijatah part-2
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
। । जय श्री राम । ।

“वेदार्थपारिजात “


।।श्री धर्मसम्राट्-स्तवनम्।।
आदित्यो-निजतेजसा हिमकर-स्तापापनोदेन वै,  भौमः शत्रुविदारणेन-सततं सौम्यश्च ज्ञानाकरैः।
वाण्या देवगुरुःकविःसुतपसा सौरिश्च सत्येन यः, इत्थं सर्वविधैःग्रहैः विलसितःश्रीपाणिपात्रो यतिः।।१।।
स्वकीय तेजस्विता से जो सूर्य,मानव मन के संतापों को निश्चित दूर करने में जो चन्द्र,शास्त्र विरोधियों के  अभिमतों को विदीर्ण करने में (सेनापतित्वात्)भौम,ज्ञान संपदा में बुध,शास्त्र पूत वक्तृता में देवगुरु वृहस्पति,तपस्या में कविवर शुक्राचार्य,सत्य भाषण एवं न्यायप्रियता में शनिदेव,के समान हैं,ऐसे सर्वविध ग्रहों के तेज से सुशोभित पूज्य श्री करपात्री जी महाराज का दिव्य स्वरूप है।१।।
भक्त्या-भूषित-मानसं यतिवरं वैराग्य-वोधाश्रयं,ज्ञानाकाश-विभासकं-पटुतमं विज्ञान-भा-भासुरम्।
सिद्धान्त-प्रतिपादने प्रतिपलं संरक्षणे तत्परं, वन्दे ज्ञानदिवाकरं हरिहरानन्दं सदा श्रद्धया।।२।।
भक्ति से भूषित मन वाले,ज्ञान-वैराग्य से संपन्न,ज्ञानाकाश को प्रकाशित करने वाले,विज्ञान के तेज से भासित अत्यन्त दक्ष,प्रतिपल सिद्धान्त के प्रतिपादन एवं संरक्षण में तत्पर,ज्ञानदिवाकर यतिश्रेष्ठ पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती जी महाराज को में सदा श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं।।२।।
यो दृष्टवा भवसागरे निपतितं मोहान्धकारे जगत्, अज्ञाना-वृतमानसं विचलितं पाखण्ड पंकेरतम्।
कारुण्येन समागतो नरवरे तद्रक्षितुं यः स्वयं, पूज्यो भावभरैःनृभिःप्रतिदिनं श्रीपाणिपात्रो यतिः।।३।।
अज्ञान से घिरे हुए,अतएव विचलित हो पाखण्ड रूपी कीचङ से आवृत,प्राणियों को मोहान्धकार रूपी भवसागर में पङे हुए देखकर करुणा से द्रवीभूत हो इस जगत की रक्षा के लिये,जो स्वयं १नरवर में आये,ऐसे पूज्य श्री करपात्री जी महाराज समस्त प्राणियों के द्वारा भावपूर्वक नित्य पूजनीय(प्रणम्य) हैं।।
१ -यद्यपि पूज्य श्री की अवतरण स्थली भटनी प्रतापगढ यूपी है,तदपि यहां नरवर को वरीयता देने का तात्पर्य है,जन्म के दो प्रकार शास्त्रों में कहे गये हैं, १ -विन्दु २ -नाद,(द्विधा वंशो विद्यया जन्मना च)पूज्य श्री का पावन यश विन्दु कुल की अपेक्षा नाद (विद्या,ज्ञान)कुल के कारण ही है,नरवर पूज्य श्री का विद्याकुल गुरुकुल है।
आर्यभ्रान्ति निवारणैक-कुशलो लोकस्य संरक्षकः, शास्त्रार्थ-प्रतिपादने च निरतो वादादि संयोजने।
जात्या वर्णविधिर्न कर्मविहितः शास्त्रेष्वियानेव वाक्, इत्याख्यैः सुवचैः प्रतिष्ठितयशाः श्रीपाणिपात्रो यतिः।।४।।
तथाकथित आर्य जनों के विचारों में आयी भ्रान्तियों के निवारण में कुशल,लोक के संरक्षक,शास्त्रों के परमपरागत समुचित अर्थ का प्रतिपादन करने तथा(वादे वादे जायते तत्व बोधः इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये) शास्त्रीय पक्ष का निर्धारण करने के लिये विचार गोष्ठी आयोजित करने में निरत,वर्ण व्यवस्था जन्म से होती है न कि कर्म से शास्त्रों में यही सिद्धान्त स्पष्टतया  सर्वथा वर्णित है,इत्यादि सम्यक मतों के प्रतिपादन से लब्ध प्रतिष्ठ पूज्य श्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।
संसारानल-तप्तमानसवतां कोसौ सुधानिर्झरः, भक्तानां-भगवानपूर्व-रुचिरो-वात्सल्य-कल्पद्रुमः।
मोहग्राहग्रहीतमानसवतां मोक्षार्थ विद्यामणिः, सर्वाशापरिपूरको हरिहरो श्रीपाणिपात्रोयतिः।।५।।
संसाराग्नि में झुलसते प्राणियों को शीतलता प्रदान करने के लिये ये सुधा निर्झर के रूप में कौन हैं,भक्तोंके लिये अपूर्व मनोहर सर्वाशापरिपूरक भगवान,महामोह रूपी ग्राह के द्वारा जकङे हुये मन वाले प्राणियों की मुक्ति के लिये जो विद्या मणि हैं,(ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः) वात्सलता के कल्पतरु श्रीहरिहरानन्द सरस्वती स्वामीश्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।।५।।
शैवानां-शिवतत्वनिष्ठ-रुचिरःसीताधवो राघवः, शाक्तानां समतामयश्च मधुहा राधाधवोमाधवः।
विष्णौ भक्तिमतां सतां शिवकरःश्रीवैष्णवःशंकरः, नोमेशो न हरी असौ हरिहरःसाक्षाद्यतीन्द्राधिराट् ।। ६ ।।
मानो शैवों में श्रेष्ठ शिवतत्व निष्ठ भगवतीसीता के स्वामी श्रीराम हैं,अथवा शाक्तों में समत्वभाव रखने वाले,मधुहन्ता राधावर श्रीकृष्ण हैं,या भगवान विष्णु में भक्ति भाव रखने वाले,सज्जनों का कल्याण करने वाले,श्रीवैष्णव देवाधिदेव महादेव ही हैं,अरे नहीं,ये न तो उमापति शिव हैं, न राम कृष्ण हैं, ये तो साक्षात् यतीश्वरो के भी अधिनायक पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी श्री करपात्री जी महाराज हैं।
(१ हरिश्च हरिश्च इति हरी-श्रीराम कृष्णौ,)
धर्मस्य प्रगतिर्भवेदवनतिर्भूयादधर्मस्य च,सद्भावो मनुजेषु वै खलु सदा लोकस्य भद्रं भबेत्।
गोमातुर्विजयोभवेदथ च गोहत्या निरुद्धा भवेत्,इत्थं घोषकरः सदा विजयते योगीन्द्रवृन्दाधिराट्।।७ ।।
धर्म की जय हो,अधर्म का नाश हो,प्राणियों में सदद्भावना हो,विश्व का कल्याण हो,गौ माता की जय हो,गो हत्या बन्द हो,इस प्रकार की घोषणाओं से जनमानस के हृदय में दिव्य भाव का जागरण करने वाले,योगीकुल के अधिपति पूज्य श्री करपात्री जी महाराज की सदा जय हो,
श्रीविद्यासमुपासकं गुरुवरं यज्ञात्मकं सिद्धिदं,धर्माधर्मविवेचकं श्रुतिपरं शान्तं परं दैवतम्।
सिद्धान्तप्रतिमा-सनातनवपुः श्रीशंकरं नूतनं,पद्यैरष्टभिरद्य नौमि वचसा श्रीपाणिपात्रं यतिम्।।८।।
श्रीविद्या के समुपासक, यज्ञस्वरूप,वेद शास्त्र परायण,धर्म एवं अधर्म के समर्थ व्याख्याता,सिद्धिप्रदान करने वाले परम दैव,सनातन धर्म के सिद्धान्तों के साक्षात् विग्रह,शास्वत सत्ता वाले अभिनव शंकर,श्रीकरपात्री जी महाराज को अष्ट पद्य प्रसूनात्मक वाणी के द्वारा आज नमन करते हैं,।
अष्टपाशनिराशाय,सर्वेष्टसाधनायच।                                                                                                                                                    अन्तःकरण-शुद्ध्यर्थं-मयाकारि तदष्टकम्।।९ ।।
अष्ट पाशों के विनाश के लिये, सर्व इष्ट सिद्धि के लिये,तथा अन्तःकरण की शुद्धि के लिये मेरे द्वारा ये अष्टक रचा गया ।
( साभार : श्रीगुरुकृपाधनसम्पन्नः त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्यः )

प्रातः स्मरणीय परमपूज्य  श्रीमदाचार्यवर्य (परमपूज्य  धर्मसम्राट् स्वामी  श्री  करपात्री  जी महाराज जी )  की  कृपा – प्रसादी –

Vedartha-Parijata-1 (1)
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव !
। । जय श्री राम । ।

#‎
लीजिये_आर्यसमाज_का_अन्त‬

अभिनव शंकर धर्मसम्राट् स्वामी श्री करपात्री जी महाराज की कालजयी रचना -
------------------|| वेदार्थ - पारिजात ||------------
https://shankarsandesh.files.wordpress.com/…/vedartha-parij…
प्रिय धर्मप्रेमी बंधुओं !
धर्मसम्राट् स्वामी श्री करपात्री जी की कालजयी रचना "वेदार्थ -पारिजात " जो दो खण्डों में विभाजित बहुत उत्कृष्ट , अद्भुत , प्रौढ़ ग्रन्थ है , यह ग्रन्थ आपके बीच लाकर आपका अहोभाग्य जगा रहा हूँ , काशी के सर्वश्रेष्ठ उद्भट विद्वानों ने इस पुस्तक के निर्माण में अपनी -अपनी यथायोग्य सेवा रूपी आहुति प्रदान की थी , इन आहुतियों से ये रचना रूपी प्रदीप्त अग्नि आर्य समाज का काल से महाकाल बन गयी थी | आर्य समाजी बार बार हम सनातनियों से शास्त्रार्थ में पराजित होते परन्तु पुनः अपनी धूर्तता से ये दुष्प्रचार करते कि मैं जीता मैं जीता , इनकी इसी धूर्तता के कारण इनकी एक रामबाण चिकित्सा हमारे पूज्य स्वामी जी ने की !! इसी अभेद्य पुस्तक ने आर्य समाज रूपी आसुरी विचारधारा के प्राण हरण कर सनातनियों और आर्य समाजियों के शास्त्रार्थ का सदा -सदा के लिए समाजी उपद्रव का अंत कर दिया था |
इसका उत्तर देने के लिए आर्य समाज के शीर्षस्थ आक्षेपक विशुद्धानंद नामक एक व्यक्ति ने वेदार्थ कल्पद्रुम लिखा था , जिसमे उस धूर्त विशुद्धानंद ने स्वामी करपात्री जी पर गालियों की बौछार कर डाली (जैसा कि आर्य समाजियों की आदत ही है , आप दो दूना चर कहो तो वो अपनी टी आर पी बचाए रखने के लिए पांच अवश्य बोलेगा ) , पर पारिजात की ईर्ष्या में लेखक की ईर्ष्या बुद्धि से उत्पन्न इस कल्पद्रुम का नाम ही इसे ले डूबा क्योंकि कल्पद्रुम की चर्चा पुराण सिद्धांत को प्रतिपादित करती है , स्वयं आर्य समाजी सिद्धांत के अनुसार कल्पद्रुम जैसे किसी वृक्ष का अस्तित्व नहीं है ) जिसका खंडन पारिजात वार्तिक में पुनः श्री निरंजन देव तीर्थ जी महाराज ने करके इति कर दी |
इस पुस्तक को आपके बीच में लाकर आप समझिये मैंने फेसबुक आदि से भी सारे आर्य समाज का सम्पूर्ण रूप से अंत कर दिया है !
मेरी आप सभी ब्राह्मण एवं अन्य हिन्दू धर्म प्रेमी मित्रों को ये अब तक की सबसे अनमोल भेंट होगी , ऐसा मेरा विश्वास है !!
एक बार आप सभी धर्म प्रेमी बन्धु मेरे साथ प्रेम से बोलेंगे - हर हर महादेव !
धर्म की जय हो ! अधर्म का नाश हो !प्राणियों में सद्भावना हो ! विश्व का कल्याण हो! गोमाता की जय हो ! हर हर महादेव !
|| जय श्री राम ||