गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

“नारायण” – नाम – रहस्य

  ॐ नारायणं  नमस्कृत्य नरं चैव  नरोत्तमंम् |  
   देवीं  सरस्वतीं  व्यासं  ततो  जयमुदीरयेत् ||
नारायण नाम मुझे बहुत प्रिय है , सो   प्यारे  भगवान्  श्रीमन्नारायण के  कृपापात्रों   के  चित्ताह्लाद् के  लिए इसकी व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूं  –

नारायण शब्द में दो पद हैं – नार पूर्वपद है और अयन उत्तरपद |

‘नार’ पद के विविध दृष्टियों से विविध अर्थ हैं , जो आगे प्रस्तुत किये जायेंगे | प्रथम अयन शब्द पर विचार करते हैं |
‘अयन’ पद इण गतौ (अदादिगणीय ३५४ ) अथवा अय गतौ (भ्वादिगणीय ४७० ) धातु से भाव या कर्तृत्त्वादि अर्थो मे ल्युट् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होगा |
गतेस्त्रयोsर्थाः -ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्चेति -यह प्रसिद्ध ही है | भाव मे तो इतिः आयो गतिर्वा अयनम् -गति का नाम अयन है |
कारकार्थ मे यन्ति अयन्ते गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यं सोsयनः -जिसको प्राप्त होते हैं , वो अयन है |
अथवा – यन्ति अयन्ते गच्छन्ति जानन्ति वा येन सोsयनः -जिसके द्वारा किसी को प्राप्त होते है या जानते हैं , वो अयन है |
अथवा – यन्ति अयन्ते यस्मिन् सोsयनः – जिसमें गति करते हैं , जो सबकी सहज क्रिया का आधार है -आश्रय है , वो अयन है |
अर्थात् गति , गंतव्यस्थान , गतिसाधन , ज्ञानसाधन , आश्रयस्थान , शरण आदि को अयन कहा जाता है |
मनु ने अप् = आपः को नारा कहा है (आपो नारा इति प्रोक्ता ० -मनु० ०१/१०) | नृ नये धातु से कर्तृत्व मे ण प्रत्यय ( ज्वलितिकसन्तेभ्यो ण – अष्टा ० ३/१/१४०) करने पर नार शब्द सिद्ध होगा | नार से स्त्रीत्व मे टाप् प्रत्यय ( अजाद्यतष्टाप् -अष्टा ० ४/१/३) करने पर नारा बनेगा |
नरयन्ति नृणन्ति नयन्ति संघातरूपतां पदार्थान् यास्ता आपो नारा – जो पदार्थ को संघात रूप प्रदान करते हैं , वे जल (आपः ) नारा कहलाते हैं |
अथवा – नरयति नृणाति नयतीति वा स नरोsग्निः -तस्य नरस्याग्नेः सूनवो नाराः आपः -नयन (मार्गदर्शन ) करने वाला अग्नि नर कहलाता है , उससे उत्पन्न जल (अग्नेरापः – तै० उप० २/१) उसके अपत्यवत् होने के कारण नारा कहलायेंगे |
नारायणमयनो नारायण: – अर्थात् उन नारा(आपः) का अयन (आश्रयस्थान) होने से नारायण हैं |
अथवा – नाराः आपः अयनं ज्ञानप्राप्तिसाधनं यस्य स नारायणः – जल (आपः) उस परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कराने वाला है – उसकी महिमा की ओर संकेत करने वाले हैं , इसलिए वे नारायण हैं |
नरयति नृणाति नयति प्राणिनः कर्मफ़लानिति नरः परमात्मा – मनुष्यों को कर्मफल की ओर ले जाने के कारण परमात्मा नर है |
नरस्येमे मुक्ताजना: – उस नर (परमात्मा ) के भक्तजन (मुक्तावस्था प्राप्त ) जो लोग हैं , वे नार हैं | इस दृष्टि से नाराणामयनो नारायणः -उन मुक्तों के जो आश्रय स्थान या प्राप्तव्य तत्त्व परमात्मा हैं , उनका नाम नारायण है |
नर संबंधी जन्म या कर्मफल आदि को नार कहेंगे ( ‘नरस्येदं नारम् ‘ तस्येदम् -अष्टा ० ४/३/१२० से अण् ) , उस नार (नरजन्म) अथवा कर्मफ़ल को जिसके आश्रय से प्राप्त होते हैं , वह परमेश्वर नारायण हैं |

(अत्र   ध्यातव्यम् – “तस्येदम्” (-पा०सू० ४/३/१२०) इत्यण्प्रत्ययः  | यद्यपि अणि कृते ङीप्प्रत्ययः प्राप्तस्तथापि छान्दसलक्षणैरपि स्मृतिषु व्यवहारात्  ” सर्वे  विधयश्छन्दसि विकल्प्यन्ते ” इति पाक्षिको  ङीप्प्रत्ययस्तस्याभावपक्षे सामान्यलक्षणप्राप्ते  टापि कृते  नारा इति  रूप सिद्धिः |


शब्द निषेधार्थक है अर कहते हैं पैनी या नुकीली वस्तु को , जो शरीर मे सहज प्रवेश करके चुभती हो या कष्ट प्रदान करती हो | इस सहज -प्रवेश – सादृश्य से अथवा कष्टप्रदानसाम्य से दोष भी अर या अरे कहलायेंगे |

इस दृष्टि से –
अराः = दोषाः , न अराः (=नाराः=) = गुणाः , नाराणां गुणानामयनम् पराकाष्ठास्थानम् नारायणः – अर्थात् समस्त शुभगुणों का परमधाम परमात्मा नारायण है  क्योंकि उसमें गुण ही गुण हैं , दोषों की गंध भी उसमें नहीं है |
इस प्रकार –
अविद्यमाना अरा दोषा येषु ते वेदा नाराः , तेषामयनो नारायणः |
अर्थात् सब् प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण वेद नार हैं , उनका अयन (मुख्य उद्गम – स्थान ) होने से परमात्मा नारायण है |
रमणं रः (रमु क्रीडायाम् से बाहुलाकाद् भाव में ड प्रत्यय -रम् + ड =रः ) = आनन्दः |
न रः = अरः (अरमणम् ) शोको दुःखम् | न अरः = नारः ( नारमणम् ) = आनन्दः |
नारः = आनन्दः = अयनं स्वरूपं यस्य स नारायण : |
नार अर्थात् आनन्द ही स्वरूप है जिसका , वह परमात्मा नारायण है |
महर्षि वेदव्यास जी ने तो स्पष्ट रूप से नित्य निर्गुण परमात्मा का नाम नारायण बताया है –
तत्र यः परमात्मा हि स नित्यं निर्गुणः स्मृतः |
स हि नारायणो ज्ञेयः सर्वात्मा पुरुषो हि सः ||
(-महा० शा० ३५१/१४ )
श्री आद्य शङ्कराचार्य भगवान् कहते हैं कि –
नर आत्मा , ततो जातान्याकाशादीनि नाराणि कार्याणि तानि अयं कारणात्मना व्याप्नोति , अतश्च तान्ययनमस्येति नारायणः |
अर्थात् नर आत्मा को कहते हैं , उससे उत्पन्न हुए आकाशादि नार हैं , उन कार्यरूप नारों को कारणरूप से व्याप्त करते हैं , इसलिए वे उनके अयन (आश्रय वा घर ) हैं अतः भगवान् का नाम नारायण है |

नराणां जीवानामयनत्वात्प्रलय इति वा नारायणः ” यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ( तै० उप० ३/१) इति श्रुतेः , अर्थात् प्रलय काल में नार अर्थात् जीवों के अयन होने के कारण नारायण हैं | श्रुति कहती है – जिसमें कि सब जीव मरकर प्रविष्ट होते हैं , वह नारायण हैं |

कलियुग केवल नाम आधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा ||
धर्म  की  जय  हो !
अधर्म का  नाश  हो !
प्राणियों  में  सद्भावना  हो !
विश्व  का  कल्याण  हो !
गोमाता  की  जय  हो !
हर हर महादेव !
नमो नारायणाय |
|| जय श्री राम ||

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