परमात्मा साकार है या निराकार ?यहाँ विचार्य ये है कि एक ही वस्तु साकार और निराकार एक साथ कैसे हो सकती है ?कतिपय विद्व...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, October 31, 2015
Swami Hariharananda Sarasvati or Karpatri Ji was respected Vedant Acharya; disciple of Brahmananda Sarasvati; met Yogananda at Kumbh Mela. He was from Dashanami Sampradaya ("Tradition of Ten Names") is a Hindu monastic tradition of "single-staff renunciation" (Ekadaṇḍisannyasi)generally associated with the Advaita Vedanta tradition.
शनिवार, 31 अक्टूबर 2015
परमात्मा साकार है या निराकार ?
भगवान विष्णु का स्वरूप कैसा है ? साकार या निराकार ?
भगवान विष्णु का स्वरूप कैसा है ? साकार या निराकार ? अनिर्देश्यवपु: श्रीमान् (-विष्णुसह०) जिसका विग्रह एवम्प्रकारेण निर्द...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Saturday, October 31, 2015
Darsana Somnath
31 OCT15 SAYAM SHRINGAR DARSHAN SHREE SOMNATH MAHADEV VIRAJBEN (PRO)
Posted by Shree Somnath Temple on Saturday, October 31, 2015
Sai Baba a saint only
#साईं_बाबा के प्रसंग पर ऐसा वक्तव्य (बयान) होना चाहिए -हे मनुष्यों ! आपके व्यक्तिगत पूज्य तो बहुत हो सकते हैं , जो आपक...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Friday, October 30, 2015
शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015
सर्व वेदांत सार: ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ||
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ||यहाँ आये हुए "जगन्मिथ्या" वाक्यांश में मिथ्या का अर्थ झूठ (अभावस्वरूप ) ...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Friday, October 30, 2015
काशी , केदारनाथ और कैलाश - ये तीन 'क'कार नित्यसुखस्वरूप हैं |
विश्व में #भारत , भारत में #उत्तर_भारत , उत्तर भारत में #उत्तराखण्ड, उत्तराखण्ड में #हिमवत्पर्वतश्रेणी, हिमवत्पर्वतश्रेण...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Friday, October 30, 2015
अद्वैतमते भक्तिः
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। सामुद्रो हि तरंगः क्वचन समुद्रो न तारंगः ।। इति ।।
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015
शिव महिमा अपरम्पार
शिव महिमा अपरम्पार ...तवदन्यो वरेण्यो न मान्यो नगण्यःहर हर महादेव!|| जय श्रीराम ||
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Thursday, October 29, 2015
Somnath Darsana
29 OCT15 SAYAM SHRINGAR DARSHAN SHREE SOMNATH MAHADEV VIRAJBEN (PRO)
Posted by Shree Somnath Temple on Thursday, October 29, 2015
विद्यावतां भागवते परीक्षा
अम्बरीष की कथा में ऋषि दुर्वासा को अनेक अज्ञानी भागवतकथाकार नकारात्मक पात्र के रूप में व्याख्यायित करते हैं, वे ये भूल ज...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Thursday, October 29, 2015
श्री केदारनाथ महिमा
हमारे हाथ में त्रिशूलों का स्वरूप इस प्रकार सेहै ऐसे अनेक त्रिशूल स्वतःप्रादुर्भूत हैं | "आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम् "#श्री_केदारनाथ_महिमा|| जय श्रीराम ||
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Thursday, October 29, 2015
एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म
ब्रह्म के सन्दर्भ में श्रुति के "एकमेव" कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म "एक" ही है | "एव" कार पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो...
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Thursday, October 29, 2015
बुधवार, 28 अक्टूबर 2015
सनातन तीर्थ श्री नागेशी मंदिर, बंडोरा, फोंडा, गोआ, भारत
Location of the templeThis Temple is dedicated to Lord Shiva, the temple is situated in Bandora village, about four...
Posted by Bipin Chauhan on Sunday, October 25, 2015
सनातन तीर्थ श्री मंगेशी मंदिर, प्रिओल, फोंडा, गोआ, भारत
Location of the templeThis Temple is dedicated to Lord Shiva, the temple is situated in Bandora village, about four...
Posted by Bipin Chauhan on Sunday, October 25, 2015
सनातन तीर्थ श्री शांतादुर्गा मंदिर, कवळे, फोंडें, गोआ, भारत
Shri Shantadurga Temple is a large temple complex 33 km (21 mi) from Panaji at the foothill of Kavalem village in Ponda...
Posted by Bipin Chauhan on Sunday, October 25, 2015
सनातन तीर्थ श्री महालक्ष्मी मंदिर, बंडोरा, गोआ, भारत
Despite the Portuguese influence that dominated #Goa over the centuries, it is fascinating to see how such a large...
Posted by Bipin Chauhan on Sunday, October 25, 2015
शिवलिंग ! अश्लीलता या आध्यात्मिकता ?
Lingam #shivlingaअश्लीलता या आध्यात्मिकता ?शिवलिङ्ग के सन्दर्भ में लोकभ्रान्ति का सारभूत उन्मूलन https://shankarsandesh.wordpress.com/2015/10/27/146/|| जय श्री राम ||
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Tuesday, October 27, 2015
उत्तम विचार
...........योग्य व्यक्ति ही ज्ञानी की विद्वत्ता समझ पाता है |
||जय श्रीराम||
Adi Shankara
शॅंकरम शन्कराचार्यम केशवम बदरायनां.सूत्र-भाष्यक्ऱ्तौ वन्दे भगवंतौ पुनः पुनः
Posted by Dharamsamrat Swami Karpatri Ji on Tuesday, October 27, 2015
Darsana Omkareshwar
#Ōṃkārēśvar or #Omkareshwarजय श्री महाँकालयह फोटो औकारेश्वर की है शयन आरती कै बाद भगवान को शयन कक्ष मे चौपड़ रखते है रात मे शिव पावँती चौपड़ खेलने आते है, जाे नाग नागीन कै रूप मै आतै है आप सभी दर्शन करे ।।
Posted by Shree Mahakaleshwar Temple Ujjain on Wednesday, October 28, 2015
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015
शाङ्कर-सिद्धान्त-रक्षण
“द्विपीठाभिषेकवादियों का भ्रम – भञ्जन “
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भगवान् श्री आद्यशंकराचार्य विरचित “मठाम्नाय महानुशासनम्” के इस निम्न श्लोक को लेकर स्वार्थी तत्त्वों ने बहुत उत्पात मचाया , श्लोक के अर्थ का अनर्थ करके श्री आद्य जगद्गुरु भगवान् द्वारा प्रवर्तित हजारों वर्षों की सनातन परम्परा की धज्जियां उड़ाने में किञ्चित् भी लाज न आयी और हिन्दू समाज को भ्रमित करने का बहुत प्रयास किया, ये कहकर कि एक शंकराचार्य एक पीठ पर तो क्या एक साथ चारों पीठों पर बैठ सकता है – इतना सफ़ेद झूठ इन्होने इतनी चालाकी से संसार में प्रचार किया कि क्या कहने ! आज ज़रा इस श्लोक के यथार्थ पर दृष्टि डालते हैं ,
प्रथम जिस श्लोक के आधार पर इन अज्ञानियों ने इतना महा उत्पात मचाया , उसके मौलिक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं कि इस श्लोक का मौलिक स्वरूप क्या है ? इस कार्य के लिए हमने किसी मठविशेष के दावेदार विवादास्पद् व्यक्ति के प्रकाशित अनुशासन को न लेते हुए एक निष्पक्ष व्यक्ति (वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के एक सर्वविदित निष्पक्ष विद्वान् आचार्य बलदेव उपाध्याय ) के शोधात्मक ग्रन्थ को इस श्लोक के स्वरूप के सन्दर्भ मे उद्धृत करने का कार्य किया है , जिसमें लेखक ने स्वयं स्पष्ट किया है, अनेक प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों को मिलाकर उन्होंने मठाम्नाय महानुशासन के उन प्रामाणिक श्लोकों की सूची तैयार की है। इनके इस कार्य से ये सिद्ध है कि जो महानुशासन के श्लोक उक्त आचार्य द्वारा शोध पूर्वक संगृहीत किये गए हैं, उन पर कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति अवश्य विचार करेगा ही।
अतः इस द्विपीठाधिपतित्वविवाद विषयक श्लोक इस प्रकार है –
१- परिव्राड् चार्यमर्यादां मामकीनां यथाविधिः।
चतु: पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक्॥
अन्वयः – परिव्राड् मामकीनां चतु:पीठाधिगां सत्ताम् आर्यमर्यादां च यथाविधिः पृथक् -पृथक् च प्रयुञ्ज्यात् ।
अर्थ : परिव्राजक (संन्यासी) (का कर्त्तव्य है कि वह ) मेरी (श्री आद्य शंकराचार्य ) चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का यथाविधिपूर्वक और पृथक् -पृथक् प्रयोग करे।
अब आते हैं इस श्लोक के मौलिक स्वरूप विषयक अन्य मत पर, अन्य मत के अनुसार श्लोक का स्वरूप इस प्रकार है –
२- परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधिः।
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक्॥
अन्वयः – आर्यमर्यादः परिव्राड् मामकीनां चतुष्पीठाधिगां सत्तां यथाविधिः पृथक् –पृथक् च प्रयुञ्ज्यात्।
अर्थ : मर्यादाओं का शुद्ध रूप से पालन करने वाला एक संन्यासी मेरी (अर्थात् मुझ आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित ) चारों पीठों की सम्बद्ध सत्ता का नियमानुसार (प्रत्येक मठ के लिए निर्धारित विधानों के अनुसार ) अलग-अलग प्रयोग करे।
यह तो हो गया मूल श्लोक का स्वरूप, उसका अन्वय तथा अर्थ।
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हे सज्जनों ! अब हम आपको ध्यान दिलाना चाहेंगे कि उक्त दोनों श्लोकों में से कोई भी विपक्षी मूल मानकर श्लोकान्वय कर ले, हमें इस पर कोई समस्या नहीं। आप चाहे एक निष्पक्ष लेखक का शोध मान लें चाहे तदन्य प्रचलित स्वरूप; हम दोनों से ही श्लोक का यथार्थ आपको दर्शाएंगे।
देखिये –
परिव्राड् चार्यमर्यादां मामकीनां यथाविधिः।
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक्॥
अन्वयः – परिव्राड् मामकीनां चतुष्पीठाधिगां सत्ताम् आर्यमर्यादां च यथाविधिः पृथक् -पृथक् च प्रयुञ्ज्यात्।
अर्थ : परिव्राजक (संन्यासी) (का कर्त्तव्य है कि वह ) मेरी (श्री आद्य शंकराचार्य ) चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का यथाविधिपूर्वक और पृथक् -पृथक् प्रयोग करे।
परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधिः।
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक्॥
अन्वयः – आर्यमर्यादः परिव्राड् मामकीनां चतुष्पीठाधिगां सत्तां यथाविधिः पृथक् –पृथक् च प्रयुञ्ज्यात् |
अर्थ : मर्यादाओं का शुद्ध रूप से पालन करने वाला एक संन्यासी मेरी (अर्थात् मुझ आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित ) चारों पीठों की सम्बद्ध सत्ता का नियमानुसार (प्रत्येक मठ के लिए निर्धारित विधानों के अनुसार ) अलग-अलग प्रयोग करे।
उक्त दोनों प्रकार के श्लोकों में अन्तर की समीक्षा –
प्रथम श्लोक कहता है कि एक संन्यासी का यह दायित्व है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की प्रवर्तित सत्ता का उसकी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उसके ही नियमों से और अलग -अलग प्रयोग करे और दूसरा श्लोक कहता है कि मर्यादाओं का पालन करने वाले एक संन्यासी का यह दायित्व है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की प्रवर्तित सत्ता का उसकी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उसके ही नियमों से और अलग -अलग प्रयोग करे।
उक्त दोनों प्रकार के श्लोकों में संन्यासी के लिए प्रयुक्त // आर्यमर्यादा का पालन करने वाला (आर्यमर्यादः) // विशेषण का ही आगे – पीछे अंतर है और कुछ नहीं | चाहे आप कोई भी श्लोकान्वय मानिए, दोनों से संन्यासी के लिए चार पीठों पर चार शंकराचार्य की परम्परा के अनुसार ही चलने का सिद्धान्त ख्यापित होता है।
इस यथार्थ अभिप्राय को हम शिवप्रिया व्याख्या से और स्पष्टता से आगे समझेंग, जो इस प्रकार है –
शिवप्रिया व्याख्या : –
वेदान्त की परम्परा मे परिव्राजक- स्तर के संन्यासी का विशेष महत्त्व है। ज्ञानवृद्ध का आचरण समस्त लोक के लिये आदर्श होता है, वह जैसा आचरण करता है , लोक उसी के अनुरूप अपने- अपने लक्ष्य हेतु गति करता है।
संन्यासी अपने अतिरिक्त सब त्यागकर मधुकरी – वृत्ति से (जैसे भौंरा पुष्पों से पराग चयन करता है इस तरह से ( जैसा कि कहा गया है -मनःसंकल्परहितांस्त्रीन्गृहान्पञ्च सप्त वा , मधुमक्षिकवत्कृत्वा माधूकरमिति स्मृतम् इत्यादिपूर्वक ) आहार ग्रहण करता हुआ, दुबला -पतला होकर, चर्बी न बढाता हुआ विहार करे, वह परिव्राजक (परि = समस्त दिशाओं में, व्राजक = गति करने वाला ) है ।
स्वव्यतिरिक्तं सर्वं त्यक्त्वा
मधुकरवृत्त्याहारमाहरन्कृशीभूत्वा मेदोवृद्धिमकुर्वन्विहरेत् । -सन्यासोपनिषत् ५९
अतः इस स्तर के संन्यासी के लिये श्री आद्य शङ्कराचार्य ने विशेष रूप से महानुशासन को स्पष्ट किया है।
किसी भी परिव्राजक को ये कदापि अधिकार नहीं है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चारों पीठों को स्वेच्छाचारिता से धारण करे (यथा – दो पीठ पर एक , तीन पीठ पर एक अथवा चार पीठ पर एक ) ना ही ये अधिकार है कि उस पीठ पर स्वेच्छाचारितापूर्वक जो चाहे वो नियम प्रारम्भ कर दे अपितु परिव्राजक उन पीठों को शास्त्रीय विधि से ही धारण करे (अर्थात् एक पीठ पर एक ) तथा उसकी मर्यादाओं का उसी के अनुरूप विधियों से ही अलग -अलग रूप से सम्यक्तया सुदृढ़ करे। जैसा कि
आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक् -पृथक्।
ते सर्वे चतुराचार्याः नियोगेन यथाक्रमम्॥ (-महानुशा०)
वस्तुतः मठाम्नाय श्रुति ने जिस सत्ता का गोत्र-साम्प्रदायादि विभागपूर्वक पृथक् -पृथक् रूप से ही उपदेश किया हो, दिशाएं पृथक्- पृथक् बाँट दी हों, देवता बाँट दिए , वेद बाँट दिया, इस भेद का ही यथावत् परिपालन करने वाले वेदमार्गप्रतिष्ठापक भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य की परमपवित्र वाणी उन श्रौतवचनों का उल्लंघन भला कैसे कर सकती है ? श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने श्रुति के भेद को शिरोधार्य करते हुए तदनुसार ही अपने चार शिष्यों को चारों दिशाओं में नियोजित किया। यह ऐतिहासिक सत्य इतिहास की थोड़ी -बहुत भी जानकारी रखने वाले सामान्य से सामान्य व्यक्ति से भी छिपा नहीं है।
आर्यमर्यादाओं का जो पालन न करे , वो कैसा परिव्राजक ? क्योंकि शास्त्रीयमर्यादापूर्वक ही परिव्रज्या प्राप्त की जाती है तथा शास्त्रीय मर्यादा पूर्वक ही उसका पालन करना एक द्विज का कर्त्तव्य है। स्वयं मनुस्मृति भी कहती है कि यथाक्रमोक्त अनुष्ठान से जो द्विज परिव्रज्या आश्रम का आश्रय लेता है, वही समस्त पापों से मुक्त हुआ ब्रह्मैक्य भाव को प्राप्त करता है।
अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः।
स विधूयेह पाप्मानं परम ब्रह्माधिगच्छति॥ – मनु० ०६/८५
श्लोक में आये हुए ”पृथक्-पृथक्” शब्द में विशेष रहस्य गर्भित है, भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित पीठों की पारम्परिक सत्ता पृथक् -पृथक् पद्धति से ही प्रयोक्तव्य है, इन पृथक् -पृथक् शब्दों से आम्नायाः कथिता ह्येते ० इस पूर्व श्लोक की यहाँ संसूचना आचार्य द्वारा दी गयी है। अतः स्पष्ट है कि परिव्राजक के लिये भी शास्त्रीय विधि से ही मठ प्रयोक्तव्य हैं। परिव्राजक घूम -घूम कर मे अपने आचरण, अपने ज्ञान का प्रचार – प्रसार करता है। जब स्वयं आर्यमर्यादाओं को अपने जीवन में धारण करने का व्रत उसने धारण किया है, तभी तो औरों के लिये भी आदर्श है। ऐसे आदर्श संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् रूप से ही ग्रहण करे क्योंकि यतियों के लिए ये पृथक्-पृथक् ही उपदेशित हुए हैं।
श्लोक में आये हुए “यथाविधिः” शब्द का भी विशेष रहस्य है , इसका अभिप्राय यह है कि जैसी अपने अपने विभाग तक ही मर्यादित रहकर धर्मरक्षण की विधि महानुशासनम् में श्री आद्य शङ्कराचार्य ने स्पष्ट की है वैसी विधि से ही चारों पीठों का प्रयोग करे, उसमें किसी भी प्रकार का मनोवाञ्छित /कपोलकल्पित तर्क या परिवर्तन करने का उसको कोई अधिकार नहीं है। यथाविधिः शब्द से वर्णाश्रमसदाचाराः० इस पूर्व वर्णित श्लोक को भगवान् श्री आद्य शङ्कराचार्य द्वारा संसूचित किया गया है, जैसा कि –
वर्णाश्रमसदाचाराः अस्माभिर्ये प्रसाधिताः।
रक्षणीयास्तु एवैते स्वे -स्वे भागे यथाविधिः॥ (-महानुशा०)
इन पृथक् – पृथक् आम्नायों (पूर्व , पश्चिम , उत्तर आदि ) का अपने भाग में रहते हुए यथाविधिपूर्वक ही प्रयोग करे। अर्थात् जिस पीठ में, जिस दिशा में, जिस परम्परा में उसने संन्यास ग्रहण किया है, उसी के अनुसार चलते हुए अपने लिए विहित वैदिक दायित्वों का निर्वाह करे, किसी भी प्रकार से परम्पराओं को न तोड़े।
प्रयुञ्ज्यात् पद ‘प्र ‘ उपसर्ग पूर्वक रुधादिगणीय उभयपदी युजिर् योगे धातु ( सकर्मक अनिट् ) विधिलिङ्ग लकार [विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसंप्रश्नप्रार्थनेषु लिङ्ग (-पा० अष्टा० ३/३/१६१) ] एकवचन में प्रयुक्त है। संस्कृत भाषा में प्र उपसर्ग प्रकृष्ट, पूजा, आदि अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। अतः चारो पीठों की सत्ता का जो दायित्व भागवान् श्री आद्य शंकराचार्य ने प्रवर्तित किया है, उसका बड़े ही आदर के साथ ग्रहण करते हुए, उसका पारम्परिक सामञ्जस्य सुदृढ़ रखने का भाव यहाँ भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा दिया गया है।
परिव्राड् शब्द से पीठाभिषिक्त परिव्राड् से इतर प्रत्येक परिव्राड् के लिए अभिप्राय ग्रहण करने पर श्लोक का यह अभिप्राय होगा –
जैसे परिव्राजकस्वरूप भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य ने श्रौत- मर्यादा का सम्यक् रूप से परिपालन करते हुए यथाविधिपूर्वक ही चारों पीठों की सत्ता का सम्यक् रूप से संयोजन किया था, ऐसे ही प्रत्येक परिव्राजक का यह कर्त्तव्य है कि तदनुरूप ही वह चारों पीठों में मर्यादा संरक्षण का स्वदायित्व निर्वहन करता रहे क्योंकि एक ज्ञानवृद्ध ही धर्म -मर्यादा का वास्तविक संरक्षक अथवा संवाहक होता है। श्रेयमार्गगामी का आचरण लोक के लिए प्रमाण स्वरूप होता हुआ अनुवर्तनीय है, अतः उसका यह दायित्व है कि श्रौत विभाग के अविरुद्ध मर्यादाओं का पालन करता हुआ ही लोकयात्रा का सम्पादन करे।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (-श्रीमदभगवद्गीता३/२१)
(२) #द्विपीठाधिपतित्ववादियों_की_धज्जियां –
‘हरिहरौ’ शब्द मे हरि शब्द से बन्दर अर्थ क्यों नहीं ले लेते ? विष्णु ही अर्थ क्यों लेते हैं ? जबकि हरि शब्द का अर्थ तो बन्दर भी होता है, क्योंकि विष्णु और शिव का साहचर्य सम्बन्ध है, जबकि बन्दर का शिव से क्या सम्बन्ध ? अतः हरि शब्द का अर्थ विष्णु में नियन्त्रित हो जाता है, या रामलक्ष्मणौ – में राम शब्द से दशरथ पुत्र राम का ही ग्रहण होगा क्योंकि लक्ष्मण केसाथ उसी की साहचर्यता प्रसिद्ध है। ऐसे ही रामार्जुनौ – इस शब्द में राम शब्द का अर्थ परशुराम ही उचित है तथा अर्जुन शब्द का अर्थ कार्तवीर्य अर्जुन ही लिया जाएगा, क्योंकि दोनों का विरोध सम्बन्ध है।
सशंखचक्रो हरिः या अशंखचक्रो हरिः – इत्यादि स्थलों में भी हरि शब्द का अर्थ बन्दर न लेकर विष्णु ही लिया जाएगा क्योंकि बन्दर के साथ शंख चक्र का क्या संयोग ? ना ही शंखचक्र रहित होना रूप वियोग सम्बन्ध बनता है।
किसी भी शब्दादि में अनेकार्थकता जहां हो , उन स्थलों के अर्थ का निर्णय न होने पर संयोग, विप्रयोग (वियोग), साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द की सन्निधि (सान्निध्य), सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति और स्वर आदि की सहायता से अर्थ-निर्णय किया जाता है। यही शास्त्रीय पद्धति है। साधु, वेदानुकूल, सम्यक् अर्थ के विद्यमान रहते उसका विरोधी अर्थ लेना अथवा असाधु, वेद-प्रतिकूल तथा अनुचित अर्थ लेना सरासर प्रज्ञापराध है।
…………. मठाम्नाय के परिव्राडार्यमर्यादो० श्लोक भी ऐसे ही है, एक संन्यासी का एक पीठ से ही साहचर्य सम्बन्ध है। वेद द्वारा चार अलग अलग दिशाओं में विभाजित हो चुकी चार पीठ की सत्ता के साथ अकेले संन्यासी का क्या स्वामित्व सम्बन्ध बनेगा भला ? उसका तो आम्नायाः कथिता ह्येते ० इत्यादि पूर्व श्लोकों से स्वतः ही निषेध प्राप्त है, अथ च, वेद ने तो एक संन्यासी के लिए उसकी दिशा आदि का सब पूर्व निर्देश कर दिया है, वेदाज्ञा का उल्लंघन करने की सामर्थ्य भला किसे है ? श्लोक में कहे गए एकवचन के परिव्राट् शब्द से प्रत्येक (प्रति+ एक अर्थात् एक पीठ पर केवल एक ) अर्थ ही समुचित है , चार पीठों पर तो चार ही संन्यासी बैठने की परम्परा है, श्रुति ने इसी का विधान किया है, तो तत्सम्बन्धी जो अर्थ है, वही लिया जाएगा ! पूरी मठाम्नाय महानुशासनम् में #आपात्काल जैसा कोई शब्द नहीं है, क्योंकि सनातनी परम्परा के संरक्षक स्वयं #श्रीहरि हैं। अतः ऐसे सिद्धसाधन दोष दूषित मत सभ्यों के लिए कदापि ग्राह्य नहीं।
#यदा_यदा_हि_धर्मस्य_ग्लानिर्भवति_भारत।
#अभ्युत्थानमधर्मस्य_तदात्मानं_सृजाम्यहम् ॥
सूर्य की भांति स्पष्ट शास्त्र वचनों में कांग्रेसियों जैसी मनमर्जी की इमरजेंसी लगा रहे हैं, …. ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें !
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#द्विपीठाधिपतित्व_की_धज्जियां ——————–>
संस्कृत के चमत्कार से एक ही श्लोक से निकलने वाले अनेकार्थ ———->
#पानियं_पातुमिच्छामि_त्वत्तः_कमललोचने।
#यदि_दास्यसि_नेच्छामि_न_दास्यसि_पिबाम्यहम्॥
१- हे कमल से नेत्रों वाली ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है। यदि तुम पानी देती हो तो मुझे नहीं चाहिए, नहीं देती तो मैं पी लूंगा।
( भावार्थ ये है कि तुमसे पानी पीने की इच्छा तो है पर तुमसे पियूंगा नहीं। )
२- हे कमल से नेत्रों वाली ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है। यदि तुम पानी देती हो तो मुझे कामना नहीं है, (अर्थात् मुझे ऐसे कोई प्यास नहीं लगी है कि तुम दो और मैं पी पाऊँ ) नहीं देती तो मैं पी लूंगा ( प्यार से न पिलाओगी तो बल से पी लूंगा )।
( यहाँ व्यंग्यार्थ से सिद्ध हो रहा है कि सुन्दर नेत्रों वाली स्त्री हो तो पानी पी लेना चाहिए )
३- हे कमल से नेत्रों वाली ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है। यदि तुम पानी देती हो तो मुझे नहीं चाहिए, नहीं देती तो मैं पी लूंगा।
( तात्पर्य ये है कि तुमसे पानी पीने की इच्छा तो है पर तुम पिलाओगी तो नहीं पियूंगा, अपितु स्वयं पियूंगा )
४ – हे कमल से नेत्रों वाली ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है | यदि तुम #दासी हो तो मुझे पानी नहीं चाहिए, यदि नहीं हो तो पी लूंगा।
यहाँ ‘दास्यसि’ शब्द दो अर्थों को द्योतित कर रहा है –
१- दास्यसि – तुम देती हो। २- दास्यसि – दासी + असि – तुम दासी हो।
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प्रश्न – कौन सा अर्थ संगत है ?
उत्तर – कमल जैसे सुन्दर नेत्रों वाली तो दासी भी हो सकती है, माता भी हो सकती है, अतः केवल कमलनयनत्व किसी स्त्री से पानी पीने का हेतु नहीं बन सकता। किसी दासी के हाथ से पानी पीना शास्त्रविरुद्ध है, अतः विधि की विवक्षा में चतुर्थ अर्थ ही संगत है, आपात्काल का यहाँ प्रसंग इसलिए नहीं क्योंकि न देने पर स्वयं पीने का सामर्थ्य विवक्षित हो रहा है, कमलनयना को दासी माना जाए और फिर आपातकाल लगा लो, ऐसा भी संगत नहीं क्योंकि ‘कमलनयनत्व’ को किसी दासी का ‘लक्षण’ मानने पर लक्षण में #अव्याप्ति और#अतिव्याप्ति दोनों दोष उत्पन्न हो जायेंगे। विवक्षा काव्यसौष्ठव की है तो तब चारों अर्थ संगत हैं किन्तु प्रथम तीनों अर्थों के माध्यमेन #विधि विवक्षित नहीं हो सकती।
(३) #द्विपीठाधिपतित्ववादियों_की_धज्जियां –
—————– वाक्य -तात्पर्य-निर्णय ————-
वाक्य : संन्यासी मेरी चार पीठें अलग अलग प्रयोग करे !
प्रथम तात्पर्य : एक संन्यासी एक पीठ से ही सम्बद्ध हो, यही है अलग -अलग प्रयोग करना |
द्वितीय तात्पर्य : एक संन्यासी जो चार अलग- अलग पीठें हैं, उनका प्रयोग कर ले !
#द्विपीठाधिपतित्ववादियों_की_धज्जियां –
——————- वाक्य -तात्पर्य-निर्णय ————-
वाक्य : संन्यासी मेरी चार पीठें अलग अलग प्रयोग करे !
प्रथम तात्पर्य : एक संन्यासी एक पीठ से ही सम्बद्ध हो, यही है अलग -अलग प्रयोग करना |
द्वितीय तात्पर्य : एक संन्यासी जो चार अलग- अलग पीठें हैं, उनका प्रयोग कर ले !
वक्ता के वाक्य से निकलने वाले वक्ता के ही वाक्यान्तरसम्मत अर्थ के उपस्थित रहते वाक्यान्तरविरोधी अर्थ को नहीं लिया जा सकता। एवं वक्ता के वाक्यान्तरसम्मत एवं वक्ता के वाक्यान्तर से विशिष्ट अर्थ प्राप्त होने की दशा में वाक्यान्तर विशिष्ट अर्थ भी वही ग्राह्य होता है, जो वाक्यान्तरसम्मत अर्थ के अनुकूल हो। अतः इस दृष्टि से परिव्राडार्यमर्यादो० श्लोक में द्वितीय तात्पर्य किस रूप में ग्राह्य है, इसका स्पष्ट उदाहरण श्री आद्य शंकराचार्य स्वयं हैं, जो किसी पीठविशेष के अभिषिक्त पीठचार्य न बनकर उनका अलग अलग एवं यथाविधि पालन करते हैं।
जैसे न हिंस्यात्सर्वा भूतानि -इस शास्त्रोक्त नियम का बाध अध्वरे पशुं हिंस्यात् इस शास्त्रोक्त नियम से हो जाता है तद्वत् मान लो – यहाँ पर ऐसा कहना भी अनुचित है क्योंकि अध्वरे पशुं हिंस्यात् – यह वाक्य न हिंस्यात्सर्वा भूतानि का न तो अनुवाद कर रहा है, ना ही अनुगमन , अपितु स्पष्ट बाध कर रहा है, अध्वर रूप यज्ञ की यहाँ सूचना उल्लिखित है, तथा सर्वा भूतानि न हिंस्यात् का पशु हिंस्यात् से शुद्ध विरोध सिद्ध हो रहा है किन्तु परिव्राडार्यमर्यादो० श्लोक कथन में यह बात नहीं है, यहाँ न तो अध्वर की भाति आपात्काल शब्द उल्लिखित हुआ है, ना ही शुद्ध विरोध ही सिद्ध है। इतना ही नहीं अध्वरे पशुं हिंस्यात् – यह वाक्य न हिंस्यात्सर्वा भूतानि का अनुवाद नहीं करता किन्तु परिव्राडार्यमर्यादो० यह श्लोक कथन आम्नायाः कथिता ह्येते ० का अनुवाद करता है।
जैसे श्री आद्य शंकराचार्य ने विद्या एवं कर्म के विरोध रूप हेतु से /// यथा च न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति शास्त्रादवगतं पुनः शास्त्रेणैव बाध्यते अध्वरे पशुं हिंस्यात् इति //// इस कथन का उत्तर पक्ष में खंडन किया है, (द्रष्टव्य : //// न; हेतुस्वरूपफलविरोधात्। विद्याविद्याविरोधाविरोधयोर्विकल्पासम्भवात्
समुच्चयविधानादविरोध एवेति चेत्, न; सहसम्भवानुपपत्तेः /// -ईशावास्यो० १८ , उत्तरपक्षप्रतिष्ठापनम् , श्री आद्य शङ्कराचार्य ) उसी प्रकार हमने भी आम्नायाः कथिता ह्येते ०इत्यादि मठाम्नाय -महानुशासनम् के चतुष्पीठाधिगा सत्ता के पृथक्-पृथक् प्रयोग रूपादि हेतुओं से एक संन्यस्त के द्विपीठाधिपतित्व अथवा चतुष्पीठाधिपतित्व का खंडन कर दिया है।
(यथा च न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति शास्त्रादवगतं पुनः शास्त्रेणैव बाध्यते अध्वरे पशुं हिंस्यात् इति, एवं विद्याविद्ययोरपि स्यात्; विद्याकर्मणोश्च समुच्चयः -ईशावास्यो० १८ , पूर्वपक्ष प्रतिष्ठापनम् , श्री आद्य शङ्कराचार्य )
॥ जय श्री राम ॥
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भ्रमोच्छेद =======>
——— #कोर्ट को धर्मनिर्णय का कोई अधिकार नहीं —————
स्वामी वासुदेवानन्द एवं स्वामी स्वरूपानन्द – इन दोनों संन्यासियों द्वारा धर्म निर्णय हेतु कोर्ट की शरण लेना वस्तुतः श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा संस्थापित परम्परा की अवहेलना है। सभ्यों की सन्निधि वाद(शास्त्रार्थ ) पूर्वक संशयादि निवारण करना -यही न्यायशास्त्रसम्मत दोनों वादियों का कर्त्तव्य है। धर्म निर्णय का अधिकार न होने से उसके सम्बन्ध में कोर्ट के किसी भी प्रकार के निर्णय का कोई महत्व नहीं है।
वैदिक- परम्परा के अनुसार धर्म का निर्णय करने का अधिकार केवल दो द्वारों को होता है –
(१) देवद्वार (२) राजद्वार
देवद्वार का अभिप्राय होता है देवताओं का द्वार – इसके अंतर्गत लोकदेवता आदि का परिगणन होता है , वेद के तत्त्व को जानने वाले भूदेव ब्राह्मण भी जो धर्म निर्णय देते हैं, उनका अंतर्भाव इसी के अंतर्गत होता है।
तथा राजद्वार शुद्ध कुलीन सूर्यादि वंशी क्षत्रियों के अंतर्गत आता है, ईदृश राजन्य वर्ग ही शास्त्रीय दृष्टि से सनातनधर्मावलम्बियों के लिए प्रशासक की उपाधि के योग्य मान्य है, इसी परम्परा का अनुवर्तन करना प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी का कर्त्तव्य है। उक्त राजन्य वर्ग की अध्यक्षता में ही वाद प्रतिवाद आदि के माध्यम से जो निर्णय प्राप्त होता है, उस राजाज्ञा को नारायण की ही आज्ञा के सामान महत्व प्रदान करते हुए सनातन धर्मावलम्बी जन स्वीकार करते हैं।
…………………… तथाकथित कोर्ट न तो देवद्वार के ही अंतर्गत आता है न राजद्वार के ही अंतर्गत है, अपितु यह कोर्ट तो हमारी वैदिकी परम्परा के ही विरुद्ध है, स्वयं इसके औचित्य पर ही धर्म निर्णय की आज महती आवश्यकता सनातनी धर्माचार्यों के लिए कर्त्तव्य है। यह न तो देवद्वार के अंतर्गत आती है ना ही राजद्वार के अंतर्गत। वैदिकी दृष्टि से लोकतान्त्रिक प्रशासन का कोई शास्त्रीय महत्व नहीं है, मन्वादि आर्ष शास्त्रों के अनुकूल प्रशासन राजतन्त्र ही हैं, लोकतंत्र नहीं। ऐसे में सैद्धान्तिक दृष्टि से लोकतन्त्र का कोई धर्मसम्मत मान्यत्व ही नहीं है, क्योंकि धर्म वेद से निकला है। #वेदोsखिलो_धर्ममूलम् -मनुस्मृतिः २|६ था वेद ने राजतन्त्र का उपदेश दिया है न कि तथाकथित लोकतन्त्र का।
वेद ने शुद्ध, कुलीन क्षत्रिय वंश को ही राजप्रशासन का अधिकार प्रदान किया है, ऐसे में बिना क्षत्रिय के धर्म का निर्णय करने का अधिकार कैसे ? जनार्दन भगवान श्री नारायण ही #नराधिप के रूप में धर्म को धारण कर लोक का पालन करते हैं, (नराणां च नराधिपम् -गीता १०|२७) क्या भगवान विष्णु के अभाव में धर्म धारण हो सकता है ? कदापि नहीं। क्या वेद के प्रतिकूल मार्ग से धर्म की प्राप्ति हो सकती है ? कदापि नहीं।
……………………………स्वयं को धर्माचार्य कहाने वाले कितने घोर अज्ञान में आकण्ठ डूबे हुए हैं, सुधीजन विचार कीजिये ! ईश्वर इनको सद्बुद्धि प्रदान करें !
हर हर महादेव !
॥ जय श्री राम ॥
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