Swami Hariharananda Sarasvati or Karpatri Ji was respected Vedant Acharya; disciple of Brahmananda Sarasvati; met Yogananda at Kumbh Mela. He was from Dashanami Sampradaya ("Tradition of Ten Names") is a Hindu monastic tradition of "single-staff renunciation" (Ekadaṇḍisannyasi)generally associated with the Advaita Vedanta tradition.
मंगलवार, 4 अक्टूबर 2016
What is the difference between heart, mind, logic & sprituality ?
॥ उपदेशसाहस्री ॥
तदिदं मोक्षसाधनं ज्ञानं
साधनसाध्यादनित्यात्सर्वस् माद्विरक्ताय त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणाय
प्रतिपन्नपरमहंसपारिव्राजा यशमदमदयादियुक्ताय
शास्त्रप्रसिद्धशिष्यगुणसम ्पन्नाय शुचये ब्राह्मणाय
विधिवदुपसन्नाय शिष्याय जातिकर्मवृत्तविद्याभिजनैः परीक्षिताय
ब्रूयात्पुनःपुनः यावद्ग्रहणं दृढीभवति ॥ २॥
तं प्रति ब्रूयादाचार्यः---स यदि ब्रूयात् भगवन्, कथमहं मृषाऽवादिषमिति ॥ १४॥
आचार्यो ब्रूयात्---अविद्याकृतमेतद ्यदिदं दृश्यते
श्रूयते वा, परमार्थतस्त्वेक एवात्मा अविद्यादृष्टेः अनेकवत्
आभसते, तिमिरदृष्ट्या अनेकचन्द्रवत् । ' यत्र वा अन्यदिव
स्यात् ', ' यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति
', ' मृत्योः स मृत्युमाप्नोति ', ' अथ यत्रान्यत्पश्यति
अन्यच्छृणोति अन्यद्विजानाति तदल्पं, अथ यदल्पं तन्मर्त्यमिति
', ' वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ', '
अन्योऽसावन्योऽहम् ' इति भेददर्शननिन्दोपपत्तेरविद् याकृतं द्वैतं
' एकमेवाद्वितीयम् ', ' यत्र त्वस्य ', ' तत्र को मोहः कः शोकः '
इत्याद्येकत्वविधिश्रुतिभ् यश्चेति ॥ ४०॥
With spirituality all Heart, Mind and Logic become one. According no difference between all. All is Advait.
Best Wishes,
सोमवार, 8 फ़रवरी 2016
इस प्रकार अद्वैत वेदान्त का किसी भी दर्शन से विरोध नहीं है , अपितु सभी दर्शन नदियों के समुद्र विलय की भांति अद्वैत वेदान्त में ही समाते हैं |
श्री आद्यशंकराचार्य के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् श्री रामानुजाचार्य ने ब्रह्म का जो निरूपण किया है , वह सब श्री आद्य शंकराचा...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Monday, 8 February 2016
गुरुवार, 17 दिसंबर 2015
देवी कवच - देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

श्री आद्यशंकराचार्य-मत पर आक्षेपकर्त्ताओं की धज्जियां
आक्षेप – शास्त्रानभिज्ञ या हठधर्मी पापयोनी कहने लगे हैं …….पापी को सब पापी ही दीखते हैं !
उत्तर – वाह रे धर्मात्मा ! जितनी आयु में तुझे लंगोट ठीक से बांधना नहीं आता होगा उस आयु में चारों वेद हृदयंगम कर लिए थे भगवान शंकर ने ! सो शास्त्रानभिज्ञता के इस आक्षेप पर और क्या कहें कि कौन है शास्त्रानभिज्ञ और कौन है अभिज्ञ !
पापी ? जो व्यक्ति बाल्यावस्थामें ही निवृत्ति मार्ग परायण हो गया, योग का एक जिज्ञासु भी आपके अभीष्ट पापविशेष को तो छोडिये , स्वयं शब्दब्रह्म का अतिवर्तन कर जाता है फिर परमयोगज्ञ, योगसिद्ध महायोगी महात्माओं का तो कहना ही क्या ? (जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते)
भगवान शंकर तो सबके आत्मा है , जो उनको पापी कहता है वह स्वयं को ही पापी कहने के दोष का भागी हो जाता है , किमधिकम् ?
आक्षेप – छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है | समाधान – ठीक से पढो बालक ! “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |
अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –
प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |
उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?
पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?
पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |
अस्तु , आगे चलिए –
क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३
यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |
बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –
///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |
|| जय श्री राम ||
शिखा (चोटी) धारण की आवश्यकता
प्रत्येक बात का धर्म के साध सम्बन्ध है और धर्म का सम्बन्ध कल्याणके साथ
है । हिन्दूधर्ममेँ जो-जो नियम बताये गये हैँ, वे सब-के-सब नियम मनुष्य
के कल्याण के साथ सम्बन्ध रखते हैँ । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैँ,
कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैँ । हिन्दूधर्ममेँ विद्याध्ययनका भी सम्बन्ध
कल्याणके साथ है । संस्कृत व्याकरण भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे
परिणाममेँ परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ! इसलिए हिन्दूधर्मके किसी
नियमका त्याग करना वास्तवमेँ अपने कल्याणका त्याग करना है !
जैसे, घड़ी मेँ छोटे-बड़े अनेक पुर्जे होते हैँ । उसमेँ बड़े पुर्जे का जो
महत्त्व है, वही महत्त्व छोटे पुर्जे का भी है । बड़ा पुर्जा अपनी जगह
पूरा है और छोटा पुर्जा अपनी जगह पूरा है । छोटे-से-छोटा पुर्जा भी यदि
निकाल दिया जाय तो घड़ी बन्द हो जायगी । इसी तरह हिन्दूधर्म की
छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूरी है और कल्याण करने मेँ सहायक है ।
छोटी-सी शिखा अर्थात् चोटी भी अपनी जगह पूरी है और मनुष्य के कल्याणमेँ
सहायक है । शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याण का त्याग करना है
!...
* शिखा अर्थात चोटी हिन्दुओँ का प्रधान चिह्न है । हिन्दुओँ मेँ चोटी
रखने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है । परंतु अब आपने इसका त्याग
कर दिया है- यह बड़े भारी नुकसान की बात है । विचार करेँ, चोटी न रखने के
लिए अथवा चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीँ किया, किसी ने आपसे
कहा भी नहीँ, आपको आज्ञा भी नहीँ दी, फिर भी आपने चोटी काट ली तो आप मानो
कलियुगके अनुयायी बन गये ! यह कलियुग का प्रभाव है; क्योँकि उसे सबको
नरकोँ मेँ ले जाना है । चोटी कट जानेसे नरकोँ मेँ जाना सुगम हो जायगा ।
इसलिए आपसे प्रार्थना है कि चोटीको साधारण समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
चोटी रखना मामूली दीखता है, पर यह मामूली काम नहीँ है ।
अग्नि का नाम 'शिखी' है । शिखी उसको कहा जाता है, जिसकी शिखा हो-'शिखा
यस्यास्तीति स शिखी'। वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव
है-'अग्निर्देवो द्विजातीनम्'। अतः शिखा हमारे इष्टदेव (अग्नि) का प्रतीक
है ।...
* शिखा काटने से मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है और अपने धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । प्राचीनकाल मेँ किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के
समान माना जाता था । धर्म के साथ शिखा का अटूट सम्बन्ध है । इसलिए शिखा
काटने पर मनुष्य धर्मच्युत हो जाता है । बड़े दुःखकी बात है आज हिन्दूलोग
मुसलमानोँ-ईसाईयोँ के प्रभाव मेँ आकर अपने हाथोँ अपनी शिखा काट रहे हैँ !
खुद अपने धर्म का नाश कर रहे हैँ ! यह हमारी गुलामी की पहचान है । भगवान
ने गीतामेँ कहा है-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ (गीता १६ । २३-२४)
'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न
सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को
प्राप्त होता है ।'
'अतः तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामेँ शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा
जानकर तू इस लोक मेँ शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है
अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्यकर्म करने चाहिए ।'
चोटी रखना शास्त्र का विधान है । चाहे सुख मिले या दुःख मिले, हमेँ तो
शास्त्रके विधानके अनुसार चलना है । भगवान जो कहते हैँ, सन्त-महापुरुष जो
कहते हैँ, शास्त्र जो कहते हैँ, उसके अनुसार चलनेमेँ ही हमारा वास्तविक
हित है । भगवान और उनके भक्त -ये दोनोँ ही निःस्वार्थभावसे सबका हित
करनेवाले हैँ-
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥ (मानस, उत्तर॰ ४७ । ३)
इसलिए इनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला लोक और परलोक दोनोँमेँ सुख पाता है
।...
* जिन्होँने अपनी उन्नति कर ली है, जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको
तत्त्व की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे सन्त-महात्माओँकी बात मान लेनी चाहिए;
क्योँकि उनकी बुद्धिका नतीजा अच्छा हुआ है । उनकी बात माननेमेँ ही हमारा
लाभ है । अपनी बुद्धि से अबतक हमने कितनी उन्नति की है? क्या तत्त्वकी
प्राप्ति कर ली है? इसलिए भगवान, शास्त्र और संतोँकी बात मानकर शिखा धारण
कर लेनी चाहिए । अगर उनकी बात समझमेँ न आये तो भी मान लेनी चाहिए । हमने
आजतक अपनी समझसे काम किया तो कितना लाभ लिया? जैसे, किसी ने व्यापार मेँ
बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेँगे तो हमेँ भी लाभ होगा
। उनको लाभ हुआ है तो हमेँ लाभ क्योँ नहीँ होगा? ऐसे ही जिन
सन्त-महात्माओँने परमात्मप्राप्ति कर ली है; अशान्ति, दुःख, सन्ताप आदिको
मिटा दिया, उनकी बात मानेँगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा ।
मैँ चोटी रखनेकी बात कहता हूँ तो आपके अहित के लिए नहीँ कहता हूँ । आपको
दुःख हो जाय, नुकसान हो जाय, संताप हो जाय-ऐसा मेरा बिल्कुल उद्देश्य
नहीँ है । मैँ आपके हित की बात कहता हूँ । आपके लोक और परलोक दोनोँ सुधर
जायँ, ऐसी बात कहता हूँ । वही बात कहता हूँ जो पीढ़ियोँसे आपकी
वंश-परम्परा मेँ चली आयी है । एक चोटी रखनेसे आपका क्या नुकसान होता है?
आपको क्या दोष लगता है? क्या पाप लगता है? आपके जीवन मेँ क्या अड़चन आती
है? चोटी रखनेकी जो परंपरा सदा से थी, उसका त्याग आपने किसके कहने से कर
दिया? किस सन्तके कहने से, किस पुराणके कहने से, किस शास्त्रकी आज्ञा से,
किस वेदकी आज्ञासे आपने चोटी रखन छोड़ दिया?
चोटी रखना बहुत सुगम काम है, पर आपके लिए कठिन हो रहा है; क्योँकि आपने
उसको छोड़ दिया है । यह बात आपकी पीढ़ियोँ से है । आपके बाप, दादा, परदादा
आदि सब परम्परा से चोटी रखते आये हैँ, पर अब आपने इसका त्याग कर दिया,
इसलिए अब आपको चोटी रखनेमेँ कठिनता हो रही है । विचार करेँ, चोटी रखना
छोड़ देनेसे आपको क्या लाभ हुआ? और अब आप चोटी रख लेँ तो क्या नुकसान
होगा? चोटी रखने से आपको पैसोँकी हानि होती हो, धर्मकी हानि होती हो,
स्वास्थ्यकी हानी होती हो, आपको बड़ा भारी दुःख मिलता हो तो बतायेँ ! चोटी
न रखने से लाभ तो कोई-सा भी नहीँ है, पर हानि बड़ी भारी है ! चोटी के बिना
आपका देवपूजन तथा श्राद्ध-तर्पण निष्फल हो जाता है, आपके दान-पुण्य आदि
सब शुभकर्म निष्फल हो जाते हैँ । इसलिए चोटी को मामुली समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
पहले सभी द्विज लोग चोटी रखते थे । पर हमारे देखते-देखते थोड़े वर्षोँमेँ आदमी शिखारहित हो गये ।
अब प्रायः लोगोँ की शिखा नहीँ दीखती । शिखा और सूत्र (जनेऊ) का परस्पर घनिष्ठ
सम्बन्ध है । आश्चर्य की बात है कि आज ऐसे लोग भी हैँ; जिनका सूत्र तो
है, पर शिखा नहीँ है ! यह कितने पतन की बात है ! अगर यही दशा रही तो आगे
आपको कौन कहेगा कि चोटी रखो? और क्योँ कहेगा? कहनेसे उसको क्या लाभ?
शिखा पहचान है । यह आपकी की रक्षा करनेवाली है ।
प्रश्न - क्या शूद्र को शिखा रखनी चाहिए ?
उत्तर - शूद्र को शिखा रखने का अधिकार नहीं ।।
अपने वर्णाश्रम धर्म रूपी तप के द्वारा श्री हरि की आराधना से अधिक श्री हरि को संतुष्ट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।।
अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से मनुष्य में स्वतः वैराग्यादि साधन -चतुष्टय का प्राकट्य हो जाता है ।।
{ स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् । साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि चतुष्टयम् ।। }
जनेऊ और शिखा सबके लिए नहीँ है, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए है,
जैसे मुसलमानोँ के लिए सुन्नत है, ऐसे ही हिन्दुओँ द्विज वर्ण के लिए के लिए शिखा है ।
सुन्नत के बिना कोई मुसलमान नहीँ मिलेगा, पर शिखा के बिना आज
हिन्दुओँका समुदाय-का-समुदाय मिल जायगा । मुसलमान और ईसाई बड़े जोरोँ से
अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैँ और हिन्दुओँ का धर्म-परिवर्तन करनेकी नयी-नयी योजनाएँ बना रहे हैँ ।
आपने अपनी चोटी कटवाकर उनके प्रचार-कार्य को सुगम बना दिया है !
इसलिए समय रहते हिन्दुओँ को सावधान हो जाना चाहिए।
मुसलमान अपने धर्म का प्रचार मूर्खता से करते हैँ और ईसाई बुद्धिमत्ता से ।
मुसलमान तो तलवार के जोरसे जबर्दस्ती धर्मपरिवर्तन करते हैँ, पर
ईसाई बाहर से सेवा करके भीतर-ही-भीतर (गुप्त रीतिसे) धर्म-परिवर्तन करते हैँ ।
वे स्कूल खोलते हैँ और बालकोँ पर अपने धर्मके संस्कार डालते हैँ ।
इस काममेँ ईसाई सफल हो गये ! मुसलमानोँ और ईसाइयोँका उद्देश्य
मनुष्यमात्र का कल्याण करना नहीँ है, प्रत्युत अपनी संख्या बढ़ाना है, जिससे
उनका राज्य हो जाय । कलियुगका प्रभाव प्रतिवर्ष, प्रतिमास, प्रतिदिन
जोरोँसे बढ़ रहा है । लोगोँकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है । मनुष्यमात्र का
कल्याण चाहनेवाली हिन्दू-संस्कृति नष्ट हो रही है । हिन्दू स्वयं ही अपनी
संस्कृति का नाश करेँगे तो रक्षा कौन करेगा?...
प्रश्न- चोटी रखने से शर्म आती है, वह कैसे छुटे?
उत्तर- आश्चर्यकी बात है कि व्यापार आदिमेँ बेईमानी, झूठ-कपट करनेमेँ
शर्म नही, गर्भपात आदि पाप करनेमेँ शर्म नहीँ आती, चोरी, विश्वासघात आदि
करते समय शर्म नहीँ आती, पर चोटी रखनेमेँ शर्म आती है ! आपकी शर्म ठीक है
या भगवान और संतो की बात मानना, उनको प्रसन्न करना ठीक है? आप चोटी रखो
तो आरम्भमेँ शर्म आयेगी, पर पीछे सब ठीक हो जायेगा ।...
लोग हँसी उड़ायेँ, पागल कहेँ तो उसको सह लो, पर धर्मका त्याग मत करो ।
आपका धर्म आपके साथ चलेगा, हँसी-दिल्लगी आपके साथ नहीँ चलेगी । लोगोँकी
हँसी से आप डरो मत । लोग पहले हँसी उड़ायेँगे, पर बादमेँ आदर करने लगेँगे
कि यह अपने धर्म का पक्का आदमी है ।...
अतः उनकी हँसी की परवाह न करके अपने धर्मका पालन करना चाहिए ।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मँ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५।६३)
'कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्मका त्याग न करे ।
धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य हैँ । इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और
उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।'
सोमवार, 7 दिसंबर 2015
मठाम्नाय महानुशासनम्

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015
विचार प्रेषक श्री आद्य शंकराचार्य
आयु बीत जाने के बाद काम विकार कहाँ ? पानी सूख जाने पर फिर कैसा सरोवर ?,धन चले जाने पर किसका परिवार ? और तत्त्व ज्ञान होने के बाद फिर कैसा संसार ?-#श्रीआद्यशंकराचार्य |#भज_गोविन्दं_मूढमते||जयश्रीराम||
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Tuesday, 1 December 2015
स्वामी स्वरूपानन्द भ्रान्ति उच्छेद
इतने चेले भरे हो , इतने समर्थक भरे हो ! सारे प्रवक्ता यही फेसबुक पर आये दिन अपना प्रचार पृष्ठ अपडेट करते हैं ! #जय_गुरुदेव लिखने वालों की कमी नहीं !
पर देखो तो आश्चर्य ! आज तक मेरे प्रश्नों का उत्तर किसी तथाकथित अंध और स्वार्थी भक्तों से दिया न गया ! यदि एक तरह से देखा जाए तो इसे ही कहते हैं मीडिया के पाखण्ड की धज्जियां
ये चालाक इतने हैं कि सामने आना तो दूर स्वयं अपने पृष्ठों पर हमारा प्रश्नप्रधान लेख प्रकाशित ही नहीं होने देते , पहले ही ब्लॉक , जबकि सत्यवादी होते तो ऐसा खंडन लिखते कि दूध अलग और पानी अलग हो जाता !
चलो मुझसे दूर ही रहो कोई बात नहीं पर प्रश्नों पर शास्त्रीय विचार तो करो मूर्खों ! पीठ पीछे ही दे दो उत्तर ! #द्विपीठाधिपतित्व पर तुम्हारा शास्त्रीय उत्तर सब देखना चाहते हैं !
यदि विश्वस्त सूत्रों की मानें तो ये बेचारे स्वामी स्वरूपानन्द महाशय के आगे भी अपना रोना रो चुके कि फेसबुक पर ऐसा लिखा जा रहा है ! ................पर बेचारे देंगे कहाँ से ? .....जब कोयला हाथ में होगा तो हाथ खोलने पर काला तो दिखेगा ही !
जिसे भी अवसर मिले , हमारे ये सारे वक्तव्य इन ढपोर शंखों के जय गुरुदेव वाले पृष्ठों पर जरूर यहाँ से उठाकर डालियेगा
साथ में ये लिंक भी , ताकि इनकी निद्रा टूट सके ( ध्यातव्य है कि इस लिंक में वही श्लोक प्रकाशित किया गया है जिससे ये सारा पाखण्ड साम्राज्य खडा किया गया है ) -
_______________________________
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक् ||
आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक् -पृथक् |
ते सर्वे चतुराचार्याः नियोगेन यथाक्रमम् || (-महानुशा०)
परिव्राजकत्व को प्राप्त एक संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् और यथाविधिपूर्वक प्रकृष्ट संयोजन करे |
वर्णाश्रमसदाचाराः अस्माभिर्ये प्रसाधिताः |
रक्षणीयास्तु एवैते स्वे -स्वे भागे यथाविधिः || (-महानुशा०)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || (-श्रीमदभगवद्गीता३/२१)
शनिवार, 28 नवंबर 2015
पंचमुखी यानी शिव या ईश्वर या भगवान या परमात्मा
Though bearing each a different name, form, and set of qualities, these are all aspects of a one Supreme Being - Śiva,...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 28 November 2015
बुधवार, 25 नवंबर 2015
दर्शन माँ गंगा और आनंदवन
Darśana #माँ_गंगा और #आनंदवन
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015
षड्दर्शन
#षड्दर्शन का मर्म ---> कर्म और ज्ञान - ये दो ही मार्ग हैं ( द्वाविमौ पन्थानौ ) , इसी के अनुसार षड्दर्शन भी व्यवस्थित हैं...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015
गीता
#गीता पर अनगिनत #भाष्य और #व्याख्याएं हैं ,अनुमानतः ये संख्या हजारों में होगी , पर ९० % से अधिक भाष्य व्याख्याएं केवल और...
Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015
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