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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2016

Why were Shudras  not permitted to read the Vedas?

What is the difference between heart, mind, logic & sprituality ?

In Sanatan Dharm or Eternal Law, sacred Advait Vedant his holiness Adi Shankar describe through Upadeshasahasri or ॥ उपदेशसाहस्री ॥.

॥ उपदेशसाहस्री ॥

तदिदं मोक्षसाधनं ज्ञानं

साधनसाध्यादनित्यात्सर्वस्माद्विरक्ताय त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणाय

प्रतिपन्नपरमहंसपारिव्राजायशमदमदयादियुक्ताय

शास्त्रप्रसिद्धशिष्यगुणसम्पन्नाय शुचये ब्राह्मणाय

विधिवदुपसन्नाय शिष्याय जातिकर्मवृत्तविद्याभिजनैः परीक्षिताय

ब्रूयात्पुनःपुनः यावद्ग्रहणं दृढीभवति ॥ २॥

तं प्रति ब्रूयादाचार्यः---स यदि ब्रूयात् भगवन्, कथमहं मृषाऽवादिषमिति ॥ १४॥


आचार्यो ब्रूयात्---अविद्याकृतमेतद्यदिदं दृश्यते

श्रूयते वा, परमार्थतस्त्वेक एवात्मा अविद्यादृष्टेः अनेकवत्

आभसते, तिमिरदृष्ट्या अनेकचन्द्रवत् । ' यत्र वा अन्यदिव

स्यात् ', ' यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति

', ' मृत्योः स मृत्युमाप्नोति ', ' अथ यत्रान्यत्पश्यति

अन्यच्छृणोति अन्यद्विजानाति तदल्पं, अथ यदल्पं तन्मर्त्यमिति

', ' वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ', '

अन्योऽसावन्योऽहम् ' इति भेददर्शननिन्दोपपत्तेरविद्याकृतं द्वैतं

' एकमेवाद्वितीयम् ', ' यत्र त्वस्य ', ' तत्र को मोहः कः शोकः '

इत्याद्येकत्वविधिश्रुतिभ्यश्चेति ॥ ४०॥

Adi Shankara composes, in verse 2.14.40 of Upadeshasahasri, that "the psyche is a position of journey where the divine beings, all information [Vedas] and all other filtering organizations get to be one; a shower in that spot of journey makes one Eternal".
With spirituality all Heart, Mind and Logic become one. According no difference between all. All is Advait.
Best Wishes,

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

इस प्रकार अद्वैत वेदान्त का किसी भी दर्शन से विरोध नहीं है , अपितु सभी दर्शन नदियों के समुद्र विलय की भांति अद्वैत वेदान्त में ही समाते हैं |


श्री आद्यशंकराचार्य के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् श्री रामानुजाचार्य ने ब्रह्म का जो निरूपण किया है , वह सब श्री आद्य शंकराचा...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Monday, 8 February 2016

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

देवी कवच - देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः। न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥१॥ विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाश्क्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्। तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥२॥ पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः। मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥३॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया। तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥४॥ परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि। इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि! कं यामि शरणम्॥५॥ श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः। तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनःको जानीते जनानि जपनीयं जपविधौ॥६॥ चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः। कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥७॥ न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः। अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः॥८॥ नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः। श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥९॥ आपस्तु मग्नः स्मराणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि। नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥१०॥ जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि। अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥११॥ मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि। एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥१२॥ //इति श्रीशंकराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् //

श्री आद्यशंकराचार्य-मत पर आक्षेपकर्त्ताओं की धज्जियां

जो लोग स्त्री वैश्य तथा शूद्रों को पापयोनि कहने वालों को हठधर्मी कहें उन हठधर्मियों की हठधर्मिता के लिए भला और क्या कहा जा सकता है , शिष्टाचार अपने स्थान पर है न्याय अपने स्थान पर :- #विस्तार की सारभूत धज्जियां :- आक्षेप – स्त्री वैश्य तथा शूद्रों को पापयोनि कहने वाले हठधर्मी हैं | उत्तर – कौन हठधर्मी है कौन नहीं ये तो अभी आगे सिद्ध होगा , बांकी श्री आद्य शंकराचार्य को हठधर्मी कहने वाले कितने उदारवादी हैं स्पष्ट हो ही रहा है !
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आक्षेप – शास्त्रानभिज्ञ या हठधर्मी पापयोनी कहने लगे हैं …….पापी को सब पापी ही दीखते हैं !

उत्तर – वाह रे धर्मात्मा ! जितनी आयु में तुझे लंगोट ठीक से बांधना नहीं आता होगा उस आयु में चारों वेद हृदयंगम कर लिए थे भगवान शंकर ने ! सो शास्त्रानभिज्ञता के इस आक्षेप पर और क्या कहें कि कौन है शास्त्रानभिज्ञ और कौन है अभिज्ञ !

पापी ? जो व्यक्ति बाल्यावस्थामें ही निवृत्ति मार्ग परायण हो गया, योग का एक जिज्ञासु भी आपके अभीष्ट पापविशेष को तो छोडिये , स्वयं शब्दब्रह्म का अतिवर्तन कर जाता है फिर परमयोगज्ञ, योगसिद्ध महायोगी महात्माओं का तो कहना ही क्या ? (जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते)

भगवान शंकर तो सबके आत्मा है , जो उनको पापी कहता है वह स्वयं को ही पापी कहने के दोष का भागी हो जाता है , किमधिकम् ?



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आक्षेप – छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है | समाधान – ठीक से पढो बालक ! “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )

……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |

अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –



प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |



उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?

पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?

पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |

अस्तु , आगे चलिए –

क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |



किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३


यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |


बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –




///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |

(क्रमशः)

|| जय श्री राम ||

“द्विपीठाभिषेकवादियों का भ्रम – भञ्जन “


शिखा (चोटी) धारण की आवश्यकता

हिन्दू-संस्कृति बहुत विलक्षण है । इसमेँ छोटी से छोटी अथवा बड़ी से बड़ी
प्रत्येक बात का धर्म के साध सम्बन्ध है और धर्म का सम्बन्ध कल्याणके साथ
है । हिन्दूधर्ममेँ जो-जो नियम बताये गये हैँ, वे सब-के-सब नियम मनुष्य
के कल्याण के साथ सम्बन्ध रखते हैँ । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैँ,
कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैँ । हिन्दूधर्ममेँ विद्याध्ययनका भी सम्बन्ध
कल्याणके साथ है । संस्कृत व्याकरण भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे
परिणाममेँ परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ! इसलिए हिन्दूधर्मके किसी
नियमका त्याग करना वास्तवमेँ अपने कल्याणका त्याग करना है !

जैसे, घड़ी मेँ छोटे-बड़े अनेक पुर्जे होते हैँ । उसमेँ बड़े पुर्जे का जो
महत्त्व है, वही महत्त्व छोटे पुर्जे का भी है । बड़ा पुर्जा अपनी जगह
पूरा है और छोटा पुर्जा अपनी जगह पूरा है । छोटे-से-छोटा पुर्जा भी यदि
निकाल दिया जाय तो घड़ी बन्द हो जायगी । इसी तरह हिन्दूधर्म की
छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूरी है और कल्याण करने मेँ सहायक है ।
छोटी-सी शिखा अर्थात् चोटी भी अपनी जगह पूरी है और मनुष्य के कल्याणमेँ
सहायक है । शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याण का त्याग करना है
!...

* शिखा अर्थात चोटी हिन्दुओँ का प्रधान चिह्न है । हिन्दुओँ मेँ चोटी
रखने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है । परंतु अब आपने इसका त्याग
कर दिया है- यह बड़े भारी नुकसान की बात है । विचार करेँ, चोटी न रखने के
लिए अथवा चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीँ किया, किसी ने आपसे
कहा भी नहीँ, आपको आज्ञा भी नहीँ दी, फिर भी आपने चोटी काट ली तो आप मानो
कलियुगके अनुयायी बन गये ! यह कलियुग का प्रभाव है; क्योँकि उसे सबको
नरकोँ मेँ ले जाना है । चोटी कट जानेसे नरकोँ मेँ जाना सुगम हो जायगा ।
इसलिए आपसे प्रार्थना है कि चोटीको साधारण समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
चोटी रखना मामूली दीखता है, पर यह मामूली काम नहीँ है ।

अग्नि का नाम 'शिखी' है । शिखी उसको कहा जाता है, जिसकी शिखा हो-'शिखा
यस्यास्तीति स शिखी'। वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव
है-'अग्निर्देवो द्विजातीनम्'। अतः शिखा हमारे इष्टदेव (अग्नि) का प्रतीक
है ।...

* शिखा काटने से मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है और अपने धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । प्राचीनकाल मेँ किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के
समान माना जाता था । धर्म के साथ शिखा का अटूट सम्बन्ध है । इसलिए शिखा
काटने पर मनुष्य धर्मच्युत हो जाता है । बड़े दुःखकी बात है आज हिन्दूलोग
मुसलमानोँ-ईसाईयोँ के प्रभाव मेँ आकर अपने हाथोँ अपनी शिखा काट रहे हैँ !
खुद अपने धर्म का नाश कर रहे हैँ ! यह हमारी गुलामी की पहचान है । भगवान
ने गीतामेँ कहा है-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ (गीता १६ । २३-२४)
'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न
सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को
प्राप्त होता है ।'
'अतः तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामेँ शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा
जानकर तू इस लोक मेँ शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है
अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्यकर्म करने चाहिए ।'

चोटी रखना शास्त्र का विधान है । चाहे सुख मिले या दुःख मिले, हमेँ तो
शास्त्रके विधानके अनुसार चलना है । भगवान जो कहते हैँ, सन्त-महापुरुष जो
कहते हैँ, शास्त्र जो कहते हैँ, उसके अनुसार चलनेमेँ ही हमारा वास्तविक
हित है । भगवान और उनके भक्त -ये दोनोँ ही निःस्वार्थभावसे सबका हित
करनेवाले हैँ-
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥ (मानस, उत्तर॰ ४७ । ३)
इसलिए इनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला लोक और परलोक दोनोँमेँ सुख पाता है
।...

* जिन्होँने अपनी उन्नति कर ली है, जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको
तत्त्व की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे सन्त-महात्माओँकी बात मान लेनी चाहिए;
क्योँकि उनकी बुद्धिका नतीजा अच्छा हुआ है । उनकी बात माननेमेँ ही हमारा
लाभ है । अपनी बुद्धि से अबतक हमने कितनी उन्नति की है? क्या तत्त्वकी
प्राप्ति कर ली है? इसलिए भगवान, शास्त्र और संतोँकी बात मानकर शिखा धारण
कर लेनी चाहिए । अगर उनकी बात समझमेँ न आये तो भी मान लेनी चाहिए । हमने
आजतक अपनी समझसे काम किया तो कितना लाभ लिया? जैसे, किसी ने व्यापार मेँ
बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेँगे तो हमेँ भी लाभ होगा
। उनको लाभ हुआ है तो हमेँ लाभ क्योँ नहीँ होगा? ऐसे ही जिन
सन्त-महात्माओँने परमात्मप्राप्ति कर ली है; अशान्ति, दुःख, सन्ताप आदिको
मिटा दिया, उनकी बात मानेँगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा ।

मैँ चोटी रखनेकी बात कहता हूँ तो आपके अहित के लिए नहीँ कहता हूँ । आपको
दुःख हो जाय, नुकसान हो जाय, संताप हो जाय-ऐसा मेरा बिल्कुल उद्देश्य
नहीँ है । मैँ आपके हित की बात कहता हूँ । आपके लोक और परलोक दोनोँ सुधर
जायँ, ऐसी बात कहता हूँ । वही बात कहता हूँ जो पीढ़ियोँसे आपकी
वंश-परम्परा मेँ चली आयी है । एक चोटी रखनेसे आपका क्या नुकसान होता है?
आपको क्या दोष लगता है? क्या पाप लगता है? आपके जीवन मेँ क्या अड़चन आती
है? चोटी रखनेकी जो परंपरा सदा से थी, उसका त्याग आपने किसके कहने से कर
दिया? किस सन्तके कहने से, किस पुराणके कहने से, किस शास्त्रकी आज्ञा से,
किस वेदकी आज्ञासे आपने चोटी रखन छोड़ दिया?

चोटी रखना बहुत सुगम काम है, पर आपके लिए कठिन हो रहा है; क्योँकि आपने
उसको छोड़ दिया है । यह बात आपकी पीढ़ियोँ से है । आपके बाप, दादा, परदादा
आदि सब परम्परा से चोटी रखते आये हैँ, पर अब आपने इसका त्याग कर दिया,
इसलिए अब आपको चोटी रखनेमेँ कठिनता हो रही है । विचार करेँ, चोटी रखना
छोड़ देनेसे आपको क्या लाभ हुआ? और अब आप चोटी रख लेँ तो क्या नुकसान
होगा? चोटी रखने से आपको पैसोँकी हानि होती हो, धर्मकी हानि होती हो,
स्वास्थ्यकी हानी होती हो, आपको बड़ा भारी दुःख मिलता हो तो बतायेँ ! चोटी
न रखने से लाभ तो कोई-सा भी नहीँ है, पर हानि बड़ी भारी है ! चोटी के बिना
आपका देवपूजन तथा श्राद्ध-तर्पण निष्फल हो जाता है, आपके दान-पुण्य आदि
सब शुभकर्म निष्फल हो जाते हैँ । इसलिए चोटी को मामुली समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।


पहले सभी द्विज लोग चोटी रखते थे । पर हमारे देखते-देखते थोड़े वर्षोँमेँ आदमी शिखारहित हो गये ।
अब प्रायः लोगोँ की शिखा नहीँ दीखती । शिखा और सूत्र (जनेऊ) का परस्पर घनिष्ठ
सम्बन्ध है । आश्चर्य की बात है कि आज ऐसे लोग भी हैँ; जिनका सूत्र तो
है, पर शिखा नहीँ है ! यह कितने पतन की बात है ! अगर यही दशा रही तो आगे
आपको कौन कहेगा कि चोटी रखो? और क्योँ कहेगा? कहनेसे उसको क्या लाभ?

शिखा  पहचान है । यह आपकी की रक्षा करनेवाली है ।
प्रश्न - क्या शूद्र को शिखा रखनी चाहिए ?
उत्तर - शूद्र को शिखा रखने का अधिकार नहीं ।।
अपने वर्णाश्रम धर्म रूपी तप के द्वारा श्री हरि की आराधना से अधिक श्री हरि को संतुष्ट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।।
{ स्व-वर्णाश्रम धर्मेण तपसा हरितोषणात्। हरिराराध्यते पुंसां नान्यत्तत्तोषकारणम्।। }
अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से मनुष्य में स्वतः वैराग्यादि साधन -चतुष्टय का प्राकट्य हो जाता है ।।
{ स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् । साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि चतुष्टयम् ।। }

जनेऊ और शिखा सबके लिए नहीँ है, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए है,
जैसे मुसलमानोँ के लिए सुन्नत है, ऐसे ही हिन्दुओँ द्विज वर्ण के लिए के लिए शिखा है ।
सुन्नत के बिना कोई मुसलमान नहीँ मिलेगा, पर शिखा के बिना आज
हिन्दुओँका समुदाय-का-समुदाय मिल जायगा । मुसलमान और ईसाई बड़े जोरोँ से
अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैँ और हिन्दुओँ का धर्म-परिवर्तन करनेकी नयी-नयी योजनाएँ बना रहे हैँ ।
आपने अपनी चोटी कटवाकर उनके प्रचार-कार्य को सुगम बना दिया है !
 इसलिए समय रहते हिन्दुओँ को सावधान हो जाना चाहिए।
 मुसलमान अपने धर्म का प्रचार मूर्खता से करते हैँ और ईसाई बुद्धिमत्ता से ।
मुसलमान तो तलवार के जोरसे जबर्दस्ती धर्मपरिवर्तन करते हैँ, पर
ईसाई बाहर से सेवा करके भीतर-ही-भीतर (गुप्त रीतिसे) धर्म-परिवर्तन करते हैँ ।

वे स्कूल खोलते हैँ और बालकोँ पर अपने धर्मके संस्कार डालते हैँ ।
इसीका परिणाम है कि घर बैठे-बैठे हिन्दुओँने अपनी चोटीका त्याग कर दिया ।
इस काममेँ ईसाई सफल हो गये ! मुसलमानोँ और ईसाइयोँका उद्देश्य
मनुष्यमात्र का कल्याण करना नहीँ है, प्रत्युत अपनी संख्या बढ़ाना है, जिससे
उनका राज्य हो जाय । कलियुगका प्रभाव प्रतिवर्ष, प्रतिमास, प्रतिदिन
जोरोँसे बढ़ रहा है । लोगोँकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है । मनुष्यमात्र का
कल्याण चाहनेवाली हिन्दू-संस्कृति नष्ट हो रही है । हिन्दू स्वयं ही अपनी
संस्कृति का नाश करेँगे तो रक्षा कौन करेगा?...

प्रश्न- चोटी रखने से शर्म आती है, वह कैसे छुटे?

उत्तर- आश्चर्यकी बात है कि व्यापार आदिमेँ बेईमानी, झूठ-कपट करनेमेँ
शर्म नही, गर्भपात आदि पाप करनेमेँ शर्म नहीँ आती, चोरी, विश्वासघात आदि
करते समय शर्म नहीँ आती, पर चोटी रखनेमेँ शर्म आती है ! आपकी शर्म ठीक है
या भगवान और संतो की बात मानना, उनको प्रसन्न करना ठीक है? आप चोटी रखो
तो आरम्भमेँ शर्म आयेगी, पर पीछे सब ठीक हो जायेगा ।...

लोग हँसी उड़ायेँ, पागल कहेँ तो उसको सह लो, पर धर्मका त्याग मत करो ।
आपका धर्म आपके साथ चलेगा, हँसी-दिल्लगी आपके साथ नहीँ चलेगी । लोगोँकी
हँसी से आप डरो मत । लोग पहले हँसी उड़ायेँगे, पर बादमेँ आदर करने लगेँगे
कि यह अपने धर्म का पक्का आदमी है ।...

अतः उनकी हँसी की परवाह न करके अपने धर्मका पालन करना चाहिए ।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मँ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५।६३)

'कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्मका त्याग न करे ।
धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य हैँ । इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और
उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।'

|| जय श्री राम ||

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

मठाम्नाय महानुशासनम्

“मठाम्नाय महानुशासनम् ” [मठाम्नाय (मठ+आम्नाय) / महानुशासन (महा+अनुशासन)] भगवान् श्रीमदाद्यशंकराचार्य द्वारा विरचित वह शास्त्रविशेष है, जो पूज्य जगद्गुरु महाराज द्वारा प्रवर्धित चतुष्पीठात्मिका व्यवस्था से सम्बन्धित विधानों एवं सिद्धान्तों के प्रकाशन को समर्पित है | इसे ही “मठाम्नाय महासेतुः” भी कहा जाता है |यह शास्त्र ‘मठाम्नायोपनिषद् ‘ (अर्थात् मठाम्नाय ) से सम्बन्धित महानुशासनम् या महासेतु है | प्रायः इसके प्रामाणिक श्लोकों को लेकर मनीषियों में पृथक्-पृथक् मत देखने को मिलता है, जिस कारण सामान्य जिज्ञासुओं के लिए मौलिक स्थिति अस्पष्ट सी हो गयी है | हमने इस अनुशासन के वर्त्तमान उपलब्ध स्वरूप को यथातथ्य रूप से दर्शाने का प्रयास किया है | _____________________________________________________ [१] आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय (अध्यक्ष, पुराणेतिहास विभाग, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय ) विरचित शोधपूर्ण ग्रन्थ ‘श्री शंकराचार्य’ आधारित ‘मठाम्नाय महानुशासनम्’, जो इस ग्रन्थ के पृष्ठ संख्या २१४-२१६ में उद्धृत है, यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि अनेक हस्तलिखित प्रतियों को मिलाकर यह उसके असली मूलरूप को खोजा गया है | इसे आप सभी के सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है | ध्यातव्य है कि इस प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रथम संस्करण १९५० में , द्वितीय १९६३ तथा तृतीय २००३ में हिन्दुस्तानी एकेडमी , इलाहाबाद से हुआ है | – महानुशासनाम् आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक्-पृथक् । तैः सर्वेश्चतुराचार्यैर्नियोगेन यथाक्रमम् ॥१॥ प्रयोक्ततव्याः स्वधर्मेषु शासनीयास्ततोऽन्यथा । कुर्वन्तु एव सततमटनं धरणीतले ॥२॥ विरुद्धाचरणप्राप्तावाचार्याणां समाज्ञया । लोकान् संशीलयन्त्वेव स्वधर्माप्रतिरोधतः ॥३॥ स्व-स्वराष्ट्रप्रतिष्ठित्यै सञ्चारः सुविधीयताम् । मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न युज्यते ॥४॥ वर्णाश्रमसदाचारा अस्माभिर्ये प्रसाधिताः । रक्षणीयाः सदैवैते स्व-स्व भागे यथाविधि ॥५॥ यतो विनष्टिर्महती धर्मस्यास्य प्रजायते । मान्द्यं सन्त्याज्यमेवात्र दाक्ष्यमेव समाश्रयेत् ॥६॥ परस्परविभागे तु न प्रवेशः कदाचन । परस्परेण कर्तव्या ह्याचार्येण व्यवस्थितिः ॥७॥ मर्यादाया विनाशेन लुप्येरन्नियमाः शुभाः । कलहाङ्गारसम्पत्तिरतस्तां परिवर्जयेत् ॥८॥ परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधि । चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक्-पृथक् ॥९॥ शुचिर्जितेन्द्रियो वेद-वेदाङ्गादिविशारदः । योगज्ञः सर्वशास्त्राणां स मदास्थानमापुयात् ॥१०॥ उक्तलक्षणसम्पन्नः स्याच्चेन्मत्पीठभाग् भवेत् । अन्यथारूढपीठोऽपि निग्रहार्हो मनीषिणाम् ॥११॥ न जातु मठमुच्छिन्द्यादिधिकारिण्युपस्थिते । विघ्नानामपि बाहुल्यादेष धर्मः सनातनः ॥१२॥ अस्मत्पीठसमारूढः परिव्राडुक्तलक्षणः । अहमेवेति विज्ञेयो यस्य देव इति श्रुतेः ॥१३॥ एक एवाविषेच्यः स्यादन्ते लक्षणसम्मतः । तत्तत्पीठे क्रमेणैव न बहु युज्यते क्वचित् ॥१४॥ सुधन्वनः समौत्सुक्यनिवृत्यै धर्म-हेतवे । देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत् ॥१५॥ केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रह्मचेतसाम् । विहितश्चोपकाराय पद्मपत्रनयं व्रजेत् ॥१६॥ सुधन्वा हि महाराजस्तथान्ये च नरेश्वराः । धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम् ॥१७॥ चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं वाङ्मनः कायकर्मभिः । गुरोः पीठं समर्चेत विभागानुक्रमेण वै ॥१८॥ धरामालम्ब्य राजानः प्रजाभ्यः करभागिनः । कृताधिकारा आचार्या धर्मतस्तद्वदेव हि ॥१९॥ धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बनः । तस्मादाचार्यसुमणेः शासनं सर्वतोऽधिकम् ॥२०॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन शासनं सर्वसम्मतम् । आचार्यस्य विशेषेण ह्यौदार्यभरभागिनः ॥२१॥ आचार्याक्षिप्त दण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ॥२२॥ इत्येवं मनुरप्याह गौतमोऽपि विशेषतः । विशिष्टशिष्टाचारोऽपि मूलादेव प्रसिद्ध्यति ॥२३॥ तानाचार्योपदेशांश्च राजदण्डांश्च पालयेत् । तस्मादाचार्यराजानावनवद्यौ न निन्दयेत् ॥२४॥ धर्मस्य पद्धतिर्ह्येषा जगतः स्थितिहेत्वे । सर्ववर्णाश्रमाणां हि यथाशास्त्रं विधीयते ॥२५॥ कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषीसत्तमः । द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम् ॥२६॥ ॥ इति महानुशासनम् ॥ ______________________________________________ ______________________________________________ [२] ‘मठाम्नाय महानुशासनम् के अद्यावधिपर्यन्त उपलब्ध समस्त श्लोक – ॥ मठाम्नायमहानुशासनम् ॥ प्रथमः पश्चिमाम्नायः शारदामठ उच्यते । कीटवारः सम्प्रदायस्तस्य तीर्थाश्रमौ पदे ॥ १॥ द्वारकाख्यं हि क्षेत्रं स्याद् देवः सिद्धेश्वरः स्मृतः । भद्रकाली तु देवी स्याद् हस्तामलक देशिकः ॥ २॥ आचार्यो विश्वरूपकः गोमतीतीर्थममलं ब्रह्मचारी स्वरूपकः । सामवेदस्य वक्ता च तत्र धर्मं समाचरेत् ॥ ३॥ जीवात्मपरमात्मैक्य बोधो यत्र भविष्यति । तत्वमसि महावाक्यं गोत्रोऽविगत उच्यते ॥ ४॥ सिन्धु-सौवीर-सौराष्ट्र-महाराष्ट्रस्तथान्तराः । देशाः पश्चिमदिक्स्था ये शारदामठभागिनः ॥ ५॥ त्रिवेणीसङ्गमे तीर्थे तत्त्वमस्यादिलक्षणे । स्नायात्तत्त्वार्थभावेन तीर्थनाम्ना स उच्यते ॥ ६॥ आश्रमग्रहणे प्रौढ आशापाशविवर्जितः । यातायातविनिर्मुक्त एतदाश्रमलक्षणम् ॥ ७॥ कीटादयो विशेषेण वार्यन्ते यत्र जन्तवः । भूतानुकम्पया नित्यं कीटवारः स उच्यते ॥ ८॥ स्व-स्वरूपं विजानाति स्वधर्म-परिपालकः । स्वानन्दे क्रीडते नित्यं स्वरूपो बटुरुच्यते ॥ ९॥ पूर्वाम्नायो द्वितीयः स्याद् गोवर्धनमठः स्मृतः । भोगवारः सम्प्रदायो वनारण्ये पदे स्मृते ॥ १०॥ पुरुषोत्तमं तु क्षेत्रं स्याञ्ज्जगन्नाथोऽस्य देवता । विमलाख्याहि देवी स्यादाचार्यः पद्मपादकः ॥ ११॥ तीर्थं महोदधिः प्रोक्तं ब्रह्मचारी प्रकाशकः । महावाक्यं च तत्र स्यात् प्रज्ञानं ब्रह्म चोच्यते ॥ १२॥ ऋग्वेदपठनं चैव काश्यपो गोत्रमुच्यते । अङ्गबङ्गकलिङ्गाश्च मगधोत्कलबर्बराः । गोवर्धनमठाधीना देशाः प्राचीव्यवस्थिताः ॥ १३॥ सुरम्ये निर्जने स्थाने वने वासं करोति यः । आशाबन्धविनर्मुक्तो वननामा स उच्यते ॥ १४॥ अरण्ये संस्थितो नित्यमानन्दे नन्दने वने । त्यक्त्वा सर्वमिदं विश्वमारण्यं परिकीर्त्यते ॥ १५॥ भोगो विषय इत्युक्तो वार्यते येन जीविनाम् । सम्प्रदायो यतीनाञ्च भोगवारः स उच्यते ॥ १६॥ स्वयं ज्योतिर्विजानाति योगयुक्तिविशारदः । तत्त्वज्ञानप्रकाशेन तेन प्रोक्तः प्रकाशकः ॥ १७॥ तृतीयस्तूत्तराम्नायो ज्योतिर्नाम मठो भवेत् । श्रीमठश्चेति वा तस्य नामान्तरमुदीरितम् ॥ १८॥ आनन्दवारो विज्ञेयः सम्प्रदायोऽस्य सिद्धिदः । पदानि तस्य ख्यातानि गिरिपर्वतसागराः ॥ १९॥ बदरीकाश्रमः क्षेत्रं देवो नारायणः स्मृतः । पूर्णागिरि च देवी स्यादाचार्यस्तोटकः स्मृतः ॥ २०॥ तीर्थं चालकनन्दाख्यं आनन्दो ब्रह्मचार्यभूत् । अयमात्मा ब्रह्म चेति महावाक्यमुदाहृतम् ॥ २१॥ अथर्ववेदवक्ता च भृग्वाख्यं गोत्रमुच्यते । कुरुकाश्मीरकाम्बोजपाञ्चालादिविभागतः । ज्योतिर्मठवशा देशा उदीचीदिगवस्थिताः ॥ २२॥ वासो गिरिवने नित्यं गीताध्ययनतत्परः । गम्भीराचलबुद्धिश्च गिरिनामा स उच्यते ॥ २३॥ वसन् पर्वतमूलेषु प्रौढं ज्ञानं विभर्ति यः । सारासारं विजानाति पर्वतः परिकीर्त्यते ॥ २४॥ तत्वसागरगम्भीर ज्ञानरत्नपरिग्रहः । मर्यादां वै न लङ्घ्येत सागरः परिकीर्त्यते ॥ २५॥ आनन्दो हि विलासश्च वार्यते येन जीविनाम् । सम्प्रदायो यतीनां चानन्दवारः स उच्यते ॥ २६॥ सत्यं ज्ञानमनन्तं यो नित्यं ध्यायेत तत्त्ववित् । स्वानन्दे रमते चैव आनन्दः परिकीर्त्यते ॥ २७॥ चतुर्थो दक्षिणाम्नायः श्रृङ्गेरी तु मठो भवेत् । सम्प्रदायो भूरिवारो भूर्भवो गोत्रमुच्यते ॥ २८॥ पदानि त्रीणि ख्यातानि सरस्वती भारती पुरी । रामेश्वराह्वयं क्षेत्रमादिवाराहदेवता ॥ २९॥ कामाक्षी तस्य देवी स्यात् सर्वकामफलप्रदा । सुरेश्वराख्य आचार्यस्तुङ्गभद्रेति तीर्थकम् ॥ ३०॥ हस्तामलक चैतन्याख्यो ब्रह्मचारी यजुर्वेदस्य पाठकः । अहं ब्रह्मास्मि तत्रैव महावाक्यं समीरितम् ॥ ३१॥ आन्ध्रद्रविडकर्णाटकेरलादिप्रभेदतः । श्रृङ्गेर्यधीना देशास्ते ह्यवाचीदिगवस्थिताः ॥ ३२॥ स्वरज्ञानरतो नित्यं स्वरवादी कवीश्वरः । संसारसागरासारहन्ताऽसौ हि सरस्वती ॥ ३३॥ विद्याभरेण सम्पूर्णः सर्वभारं परित्यजन् । दुःखभारं न जानाति भारती परिकीर्त्यते ॥ ३४॥ ज्ञानतत्त्वेन सम्पूर्णः पूर्णतत्त्वपदे स्थितः । परब्रह्मरतो नित्यं पुरीनामा स उच्यते ॥ ३५॥ भूरिशब्देन सौवर्ण्यं बार्यते येन जीविनाम् । सम्प्रदायो यतीनां च भूरिवारः स उच्यते ॥ ३६॥ चिन्मात्रं चैत्यरहितमनन्तमजरं शिवम् । यो जानाति स वै विद्वान् चैतन्यं तद्विधीयते ॥ ३७॥ मर्यादैषा सुविज्ञेया चतुर्मठविधायिनी । तामेतां समुपाश्रित्य आचार्याः स्थापिताः क्रमात् ॥ ३८॥ आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक्-पृथक् । तैः सर्वेश्चतुराचार्यैर्नियोगेन यथाक्रमम् ॥ ३९॥ प्रयोक्ततव्याः स्वधर्मेषु शासनीयास्ततोऽन्यथा । कुर्वन्तु एव सततमटनं धरणीतले ॥ ४०॥ विरुद्धाचरणप्राप्तावाचार्याणां समाज्ञया । लोकान् संशीलयन्त्वेव स्वधर्माप्रतिरोधतः ॥ ४१॥ स्व-स्वराष्ट्रप्रतिष्ठित्यै सञ्चारः सुविधीयताम् । मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न युज्यते ॥ ४२॥ वर्णाश्रमसदाचारा अस्माभिर्ये प्रसाधिताः । रक्षणीयाः सदैवैते स्व-स्व भागे यथाविधि ॥ ४३॥ यतो विनष्टिर्महती धर्मस्यास्य प्रजायते । मान्द्यं सन्त्याज्यमेवात्र दाक्ष्यमेव समाश्रयेत् ॥ ४४॥ परस्परविभागे तु न प्रवेशः कदाचन । परस्परेण कर्तव्या ह्याचार्येण व्यवस्थितिः ॥ ४५॥ मर्यादाया विनाशेन लुप्येरन्नियमाः शुभाः । कलहाङ्गारसम्पत्तिरतस्तां परिवर्जयेत् ॥ ४६॥ परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधि । चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक्-पृथक् ॥ ४७॥ शुचिर्जितेन्द्रियो वेद-वेदाङ्गादिविशारदः । योगज्ञः सर्वशास्त्राणां स मदास्थानमापुयात् ॥ ४८॥ उक्तलक्षणसम्पन्नः स्याच्चेन्मत्पीठभाग् भवेत् । अन्यथारूढपीठोऽपि निग्रहार्हो मनीषिणाम् ॥ ४९॥ नजातु मठमुच्छिन्द्यादिधिकारिण्युपस्थिते । विघ्नानामपि बाहुल्यादेष धर्मः सनातनः ॥ ५०॥ अस्मत्पीठसमारूढः परिव्राडुक्तलक्षणः । अहमेवेति विज्ञेयो यस्य देव इति श्रुतेः ॥ ५१॥ एक एवाविषेच्यः स्यादन्ते लक्षणसम्मतः । तत्तत्पीठे क्रमेणैव न बहु युज्यते क्वचित् ॥ ५२॥ सुधन्वनः समौत्सुक्यनिवृत्यै धर्म-हेतवे । देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत् ॥ ५३॥ केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रह्मचेतसाम् । विहितश्चोपकाराय पद्मपत्रनयं व्रजेत् ॥ ५४॥ सुधन्वा हिमहाराजस्तथान्ये च नरेश्वराः । धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम् ॥ ५५॥ चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं वाङ्मनः कायकर्मभिः । गुरोः पीठं समर्चेत विभागानुक्रमेण वै ॥ ५६॥ धरामालम्ब्य राजानः प्रजाभ्यः करभागिनः । कृताधिकारा आचार्या धर्मतस्तद्वदेव हि ॥ ५७॥ धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बनः । तस्मादाचार्यसुमणेः शासनं सर्वतोऽधिकम् ॥ ५८॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन शासनं सर्वसम्मतम् । आचार्यस्य विशेषेण ह्यौदार्यभरभागिनः ॥ ५९॥ आचार्याक्षिप्त दण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥६०॥ इत्येवं मनुरप्याह गौतमोऽपि विशेषतः । विशिष्टशिष्टाचारोऽपि मूलादेव प्रसिद्ध्यति ॥ ६१॥ तानाचार्योपदेशांश्च राजदण्डांश्च पालयेत् । तस्मादाचार्यराजानावनवद्यौ न निन्दयेत् ॥ ६२॥ धर्मस्य पद्धतिर्ह्येषा जगतः स्थितिहेत्वे । सर्ववर्णाश्रमाणां हि यथाशास्त्रं विधीयते ॥ ६३॥ कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषीसत्तमः । द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम् ॥ ६४॥ मठाश्चत्वार आचार्याचत्वारश्चधुरन्धराः । सम्प्रदायाश्च चत्वार एषा धर्मव्यवस्थितिः ॥ ६५॥ अथोर्ध्वं शेषा आम्नायाः विज्ञानैक विग्रहाः पञ्चमस्तूर्ध्व आम्नायः सुमेरुमठ उच्यते । सम्प्रदायोऽस्य काशी स्यात् सत्यज्ञानाभिधे पदे ॥ ६६॥ कैलासः क्षेत्रमित्युक्तं देवताऽस्य निरञ्जनः । देवी माया तथाचार्य ईश्वरोऽस्य प्रकीर्तितः ॥ ६७॥ तीर्थ तु मानसं प्रोक्तं ब्रह्मतत्त्वावगाहि तत् । तत्र संयोगमात्रेण संन्यासं समुपाश्रयेत् ॥ ६८॥ सूक्ष्मवेदस्य वक्ता च तत्र धर्मं समाचरेत् । षष्ठ स्वात्माख्य आम्नायः परमात्मा मठो महान् ॥ ६९॥ सत्त्वतोषः सम्प्रदायः पदं योगमनुस्मरेत् । नभः सरोवरं क्षेत्रं परहंसोऽस्य देवता ॥ ७०॥ देवी स्यान्मानसी माया आचार्यश्चेतनाह्वयः । त्रिपुटीतीर्थमुत्कृष्टं सर्वपुण्यप्रदायकम् ॥ ७१॥ भव-पाशविनाशाय संन्यासं तत्र चाश्रयेत् । वेदान्तवाक्यवक्ता च तत्र धर्मं समाचरेत् ॥ ७२॥ सप्तमो निष्कलाम्नायः सहस्त्रार्कद्युतिर्मठः । सम्प्रदायोऽस्य सच्छिष्यः श्रीगुरोः पादुके पदे ॥ ७३॥ तत्रानुभूतिः क्षेत्रं स्याद् विश्वरूपोऽस्य देवता। देवी चिच्छक्तिनाम्नी हि आचार्यः सद्गुरुः स्मृतः॥७४॥ सच्छास्त्रश्रवणं तीर्थं जरामृत्युविनाशकम् । पूर्णनन्दप्रसादेन संन्यासं तत्र चाश्रयेत् ॥ ७५॥ ॥ इति श्रीमद्भगवत्पादस्वामि आद्यशङ्कराचार्यकृतः श्रीमन्मठाम्नायमहानुशासनम् सम्पूर्णम् ॥

दर्शन शरभ


गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

विचार प्रेषक श्री आद्य शंकराचार्य


आयु बीत जाने के बाद काम विकार कहाँ ? पानी सूख जाने पर फिर कैसा सरोवर ?,धन चले जाने पर किसका परिवार ? और तत्त्व ज्ञान होने के बाद फिर कैसा संसार ?-#श्रीआद्यशंकराचार्य |#भज_गोविन्दं_मूढमते||जयश्रीराम||

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Tuesday, 1 December 2015

‎स्वामी स्वरूपानन्द भ्रान्ति उच्छेद‬

‪#‎स्वामी_स्वरूपानन्द_भ्रान्ति_उच्छेद‬ -
इतने चेले भरे हो , इतने समर्थक भरे हो ! सारे प्रवक्ता यही फेसबुक पर आये दिन अपना प्रचार पृष्ठ अपडेट करते हैं ! ‪#‎जय_गुरुदेव‬ लिखने वालों की कमी नहीं !
पर देखो तो आश्चर्य ! आज तक मेरे प्रश्नों का उत्तर किसी तथाकथित अंध और स्वार्थी भक्तों से दिया न गया ! यदि एक तरह से देखा जाए तो इसे ही कहते हैं मीडिया के पाखण्ड की धज्जियां
ये चालाक इतने हैं कि सामने आना तो दूर स्वयं अपने पृष्ठों पर हमारा प्रश्नप्रधान लेख प्रकाशित ही नहीं होने देते , पहले ही ब्लॉक , जबकि सत्यवादी होते तो ऐसा खंडन लिखते कि दूध अलग और पानी अलग हो जाता !
चलो मुझसे दूर ही रहो कोई बात नहीं पर प्रश्नों पर शास्त्रीय विचार तो करो मूर्खों ! पीठ पीछे ही दे दो उत्तर ! ‪#‎द्विपीठाधिपतित्व‬ पर तुम्हारा शास्त्रीय उत्तर सब देखना चाहते हैं !
यदि विश्वस्त सूत्रों की मानें तो ये बेचारे स्वामी स्वरूपानन्द महाशय के आगे भी अपना रोना रो चुके कि फेसबुक पर ऐसा लिखा जा रहा है ! ................पर बेचारे देंगे कहाँ से ? .....जब कोयला हाथ में होगा तो हाथ खोलने पर काला तो दिखेगा ही !
जिसे भी अवसर मिले , हमारे ये सारे वक्तव्य इन ढपोर शंखों के जय गुरुदेव वाले पृष्ठों पर जरूर यहाँ से उठाकर डालियेगा
साथ में ये लिंक भी , ताकि इनकी निद्रा टूट सके ( ध्यातव्य है कि इस लिंक में वही श्लोक प्रकाशित किया गया है जिससे ये सारा पाखण्ड साम्राज्य खडा किया गया है ) -
|| जयश्रीराम ||
उक्त विचार पर ‪#‎सहमत‬ हैं |
विचार प्रेषक: 100010222844871@facebook.com
“द्विपीठाभिषेकवादियों  का भ्रम – भञ्जन “
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परिव्राजकत्व को प्राप्त  एक संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् और यथाविधिपूर्वक प्रकृष्ट संयोजन करे |
परिव्राड् चार्यमर्यादां मामकीनां यथाविधिः |
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक् ||
परिव्राड् मामकीनां चतुष्पीठाधिगां सत्ताम् आर्यमर्यादां  च यथाविधिः पृथक् -पृथक् च प्रयुञ्ज्यात् |
शिवप्रिया व्याख्या : –
वेदान्त की परम्परा मे परिव्राजक- स्तर के संन्यासी का विशेष महत्त्व है |  ज्ञानवृद्ध का आचरण समस्त लोक के लिये आदर्श होता है , वह जैसा आचरण करता है , लोक उसी के अनुरूप अपने- अपने लक्ष्य हेतु गति करता है |  अतः इस स्तर के संन्यासी के लिये श्री आद्य शङ्कराचार्य ने विशेष रूप से महानुशासन को स्पष्ट किया है | किसी भी उच्च स्तरीय (ज्ञानवृद्ध) संन्यस्त को ये कदापि अधिकार नहीं है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चारों पीठों   को मनमर्जी से धारण करे (यथा –  दो पीठ  पर  एक , तीन पीठ पर एक अथवा   चार पीठ पर एक )  ना ही ये अधिकार है कि उस पीठ पर स्वेच्छाचारितापूर्वक  जो चाहे  वो  नियम  प्रारम्भ   कर दे  अपितु उच्च स्तर का संन्यासी उन पीठों को शास्त्रीय विधि से ही धारण करे (अर्थात्  एक  पीठ  पर  एक  )    तथा उसकी मर्यादाओं का उसी के अनुरूप विधियों से ही अलग -अलग रूप से सम्यक्तया सुदृढ़ करे |  वस्तुतः मठाम्नाय श्रुति  ने  जिस   सत्ता   का   गोत्रादि विभागपूर्वक  पृथक् -पृथक् रूप से ही     उपदेश  किया हो  , श्री  आद्य शंकराचार्य भगवान की  परमपवित्र  वाणी  उस   श्रौत परम्परा  का  उल्लंघन   भला  कैसे   कर सकती है   ?   अतः  श्लोक में आये हुए ”पृथक्-पृथक्” शब्द  में  विशेष रहस्य गर्भित  है , भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित   पीठों की  पारम्परिक सत्ता पृथक् -पृथक् पद्धति से ही प्रयोक्तव्य है , इन   पृथक् -पृथक् शब्दों  से   आम्नायाः कथिता ह्येते ०  इस पूर्व श्लोक की यहाँ संसूचना  आचार्य  द्वारा  दी  गयी   है | अतः   स्पष्ट है कि परिव्राजक स्तर के संन्यासी के लिये भी शास्त्रीय विधि से ही मठ प्रयोक्तव्य हैं , जैसा  कि  –
आम्नायाः  कथिता  ह्येते  यतीनाञ्च पृथक् -पृथक्  |
ते सर्वे चतुराचार्याः नियोगेन यथाक्रमम् ||  (-महानुशा०)
अर्थात् –
परिव्राजकत्व को प्राप्त  एक संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का पृथक् -पृथक् और यथाविधिपूर्वक प्रकृष्ट संयोजन करे |
श्लोक में आये हुए “यथाविधिः ” शब्द का भी विशेष रहस्य  है , इसका अभिप्राय यह है कि जैसी अपने अपने विभाग तक ही मर्यादित रहकर धर्मरक्षण की विधि महानुशासनम् में श्री आद्य शङ्कराचार्य ने स्पष्ट की है वैसी विधि से ही चारों पीठों का प्रयोग करे , उसमें किसी भी प्रकार का मनोवाञ्छित /कपोलकल्पित  तर्क या परिवर्तन करने का उसको कोई अधिकार नहीं है |   यथाविधिः शब्द सेवर्णाश्रमसदाचाराः० इस पूर्व वर्णित श्लोक को भगवान् श्री आद्य शङ्कराचार्य द्वारा संसूचित किया गया है , जैसा  कि  –
वर्णाश्रमसदाचाराः अस्माभिर्ये प्रसाधिताः |
रक्षणीयास्तु   एवैते   स्वे -स्वे भागे यथाविधिः || (-महानुशा०)
प्रयुञ्ज्यात्  पद  ‘प्र ‘ उपसर्ग पूर्वक रुधादिगणीय उभयपदी युजिर् योगे धातु ( सकर्मक अनिट् ) विधिलिङ्ग लकार [विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसंप्रश्नप्रार्थनेषु लिङ्ग (-पा० अष्टा० ३/३/१६१) ] एकवचन में प्रयुक्त है | संस्कृत भाषा में प्र उपसर्ग प्रकृष्ट , पूजा , आदि अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है | अतः चारो पीठों की सत्ता का बडे ही आदर के साथ सामञ्जस्य सुदृढ़ रखने का भाव यहाँ भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा दिया गया है |
शास्त्रीयमर्यादापूर्वक  ही  परिव्रज्या  प्राप्त  की जाती  है  तथा शास्त्रीय मर्यादा  पूर्वक ही  उसका  पालन करना  एक  द्विज  का  कर्त्तव्य है |  स्वयं  मनुस्मृति   भी  कहती   है  कि  यथाक्रमोक्त अनुष्ठान से  जो  द्विज परिव्रज्या आश्रम का  आश्रय लेता   है , वही  समस्त  पापों से मुक्त  हुआ  ब्रह्मैक्य भाव को  प्राप्त  करता है| (अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः | स विधूयेह पाप्मानं परम ब्रह्माधिगच्छति || – मनु० ०६/८५ )  अतः जैसे परिव्राजक- स्तर के श्री आद्य शंकराचार्य ने श्रौत- मर्यादा का सम्यक् रूप से परिपालन करते हुए यथाविधिपूर्वक ही चारों पीठों की सत्ता का सम्यक् रूप से संयोजन किया था , ऐसे ही प्रत्येक श्रेष्ठ संन्यासी का यह कर्त्तव्य है कि तदनुरूप ही वह चारों पीठों में मर्यादा संरक्षण का स्वदायित्व निर्वहन करता रहे क्योंकि एक ज्ञानवृद्ध ही धर्म -मर्यादा का वास्तविक संरक्षक अथवा संवाहक होता है | श्रेयमार्गगामी का  आचरण  लोक के लिए  प्रमाण स्वरूप होता हुआ  अनुवर्तनीय  है, अतः उसका  यह दायित्व  है  कि  शास्त्रीय परम्परा ,  शास्त्रीय मर्यादाओं  का  पालन करता हुआ  ही  लोकयात्रा  का  सम्पादन  करे |
 यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः | 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||  (-श्रीमदभगवद्गीता३/२१)
हर हर महादेव !
|| जय श्री राम ||

शनिवार, 28 नवंबर 2015

पंचमुखी यानी शिव या ईश्वर या भगवान या परमात्मा


Though bearing each a different name, form, and set of qualities, these are all aspects of a one Supreme Being - Śiva,...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Saturday, 28 November 2015

बुधवार, 25 नवंबर 2015

‪दर्शन माँ गंगा‬ और ‪आनंदवन‬


Darśana #माँ_गंगा और #आनंदवन

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

षड्दर्शन‬


#षड्दर्शन का मर्म ---> कर्म और ज्ञान - ये दो ही मार्ग हैं ( द्वाविमौ पन्थानौ ) , इसी के अनुसार षड्दर्शन भी व्यवस्थित हैं...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

‎गीता‬


#गीता पर अनगिनत #भाष्य और #व्याख्याएं हैं ,अनुमानतः ये संख्या हजारों में होगी , पर ९० % से अधिक भाष्य व्याख्याएं केवल और...

Posted by धर्मसम्राट स्वामी करपात्री on Wednesday, 25 November 2015

ब्लॉग आर्काइव